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________________ १० [ जैन प्रतिमाविज्ञान इनमें ब्रजेन्द्रनाथ शर्मा', मधुसूदन ढाकी', कृष्णदेव एवं बालचन्द्र जैन आदि मुख्य हैं । भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा 'जैन कला एवं स्थापत्य' शीर्षक से तीन खण्डों में प्रकाशित ग्रन्थ (१९७५) जैन कला, स्थापत्य एवं प्रतिमाविज्ञान पर अब तक का सबसे विस्तृत और महत्वपूर्ण कार्य है ।* अध्ययन-स्रोत प्रस्तुत अध्ययन में तीन प्रकार के स्रोतों का उपयोग किया गया है—अनुगामी, साहित्यिक और पुरातात्विक । अनूगामी स्रोत के रूप में आधुनिक विद्वानों द्वारा जैन प्रतिमाविज्ञान पर १९७९ तक किये गये शोध कार्यों का, जिनकी ऊपर विवेचना की गयी है, समुचित उपयोग किया गया है। आकिअलाजिकल सर्वे ऑव इण्डिया की ऐनुअल रिपोर्ट स, वेस्टर्न सकिल की प्रोग्रेस रिपोर्ट स एवं अन्य उपलब्ध प्रकाशनों का भी यथासम्भव उपयोग किया गया है। विभिन्न संग्रहालयों की जैन सामग्री पर प्रकाशित पुस्तकों एवं लेखों से भी पूरा लाभ उठाया गया है। उत्तर भारत के जैन प्रतिमाविज्ञान से सीधे सम्बन्धित सामग्री के अतिरिक्त अनुगामी स्रोत के रूप में अन्य कई प्रकार की सामग्री का भी उपयोग किया गया है जो आधुनिक ग्रन्थ एवं लेख सुची में उल्लिखित हैं । जैन धर्म, साहित्य और देवकुल के अध्ययन की दृष्टि से जैन धर्म की महत्वपूर्ण पुस्तकों एवं लेखों से लाभ उठाया गया है। तिथि एवं कुछ अन्य विवरणों की दृष्टि से स्थापत्य से सम्बन्धित; जैन प्रतिमाविज्ञान के विकास में राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक पृष्ठभूमि के अध्ययन की दृष्टि से भारतीय इतिहास से सम्बन्धित एवं दक्षिण भारत के जैन प्रतिमाविज्ञान से तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से दक्षिण भारत के जैन मूर्तिविज्ञान से सम्बन्धित महत्वपूर्ण ग्रन्थों एवं लेखों से भी आवश्यकतानुसार सहायता ली गयी है । इसी प्रकार हिन्दू एवं बौद्ध प्रतिमाविज्ञान से तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से हिन्दू एवं बौद्ध मूर्ति विज्ञान पर लिखी पुस्तकों का भी समुचित उपयोग किया गया है। मूल स्रोत के रूप में यथासम्भव सभी उपलब्ध साहित्यिक ग्रन्थों के समुचित उपयोग का प्रयास किया गया है। सम्पूर्ण साहित्यिक ग्रन्थों को सुविधानुसार हम चार वर्गों में विभाजित कर सकते हैं। पहले वर्ग में ऐसे प्रारम्भिक जैन ग्रन्थ हैं, जिनमें प्रसंगवश प्रतिमाविज्ञान से सम्बन्धित सामग्री प्राप्त होती है। जिनों, विद्याओं, यक्ष-यक्षियों एवं कुछ अन्य देवों के प्रारम्भिक स्वरूप के अध्ययन की दृष्टि से ये ग्रन्थ अतीव महत्व के हैं। प्रारम्भिक जैन कला में अभिव्यक्ति की सामग्री इन्हीं ग्रन्थों से प्राप्त की गई। इस वर्ग में महावीर के समय से सातवीं शती ई० तक के ग्रन्थ हैं। इनमें आगम ग्रन्थ, कल्पसूत्र, अंगविज्जा पउमचरियम, वसुदेवहिण्डी, आवश्यक णि, आवश्यक नियुक्ति आदि प्रमुख हैं। . दुसरे वर्ग में ल० आठवीं से सोलहवीं शती ई० के मध्य के श्वेताम्बर और दिगम्बर जैन ग्रन्थ हैं। इनमें मूर्तिविज्ञान से सम्बन्धित विस्तृत सामग्री है। इन ग्रन्थों में २४ जिनों एवं अन्य शलाका-पुरुषों, २४ यक्ष-यक्षी युगलों, १६ महाविद्याओं, सरस्वती, अष्ट-दिक्पालों, नवग्रहों, गणेश, क्षेत्रपाल, शांतिदेवी, ब्रह्मशान्ति यक्ष आदि के लाक्षणिक स्वरूप निरूपित हैं। इन व्यवस्थापक ग्रन्थों के आधार पर ही शिल्प में जैन देवों को अभिव्यक्ति मिली। श्वेताम्बर परम्परा के १ शर्मा, ब्रजेन्द्रनाथ, 'अन्पब्लिश्ड जैन ब्रोन्जेज इन दि नेशनल म्यूजियम', ज०ओ०६०, खं० १९, अं० ३, पृ० २७५ ७८; जैन प्रतिमाएं, दिल्ली, १९७९ २ ढाकी, मधुसूदन, 'सम अर्ली जैन टेम्पल्स इन वेस्टर्न इण्डिया', मजै०वि०गोजु०वा०, बम्बई, १९६८, पृ० २९० ३४७ ३ कृष्ण देव, 'दि टेम्पल्स ऑव खजुराहो इन सेन्ट्रल इण्डिया', एंशि०ई०, अं० १५, १९५९, पृ० ४३-६५'-;माला देवी टेम्पल ऐट ग्यारसपुर', पजै०वि०गोजुवा०, बम्बई, १९६८, पृ० २६०-६९ ४ जैन, बालचन्द्र, जैन प्रतिमाविज्ञान, जबलपुर, १९७४ । ५ बोष, अमलानन्द (संपादक), जैन कला एवं स्थापत्य (३ खण्ड), भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, १९७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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