________________
१२
[ जैन प्रतिमाविज्ञान
प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों से सहायता ली गई है और साथ ही मूर्त अंकन में समकालीन एवं पूर्ववर्ती साहित्यिक एवं का परम्पराओं के प्रभाव निर्धारण का भी यत्न किया गया है ।
कुषाण शिल्प में ऋषभ एवं पार्श्व की मूर्तियों के लक्षणों और ऋषभ एवं महावीर के जीवनदृश्यों की विषय सामग्री ग्रन्थों से प्राप्त की गई। जिन मूर्ति के निर्माण की प्राचीन परम्परा (लतीसरी शती ई०पू० ) होने के बाद भी मथुरा में शुंग-कुषाण युग में बौद्ध कला के समान ही जैन कला मी सर्वप्रथम प्रतीक रूप में अभिव्यक्त हुई । जैन आयागपटों के स्तूप, स्वस्तिक, धर्मचक्र, त्रिरत्न, पद्म, श्रीवत्स आदि चिह्न प्रतीक पूजन की लोकप्रियता के साक्षी हैं । मथुरा की प्राचीनतम जिन मूर्ति भी आयागपट ( ल०पहली शती ई०पू० ) १ पर ही उत्कीर्ण है । इन आयागपटों के अष्टमांगलिक चिह्न पूर्ववर्ती साहित्यिक और कला परम्पराओं से प्रभावित हैं, क्योंकि जैन ग्रन्थों में गुप्तकाल से पहले अष्टमांगलिक चिह्नों की सूची नहीं मिलती । साथ ही जैन सूची के अष्टमांगलिक चिह्नों में धर्मचक्र, पद्म, त्रिरत्न ( या तिलकरत्न), वैजयंती ( या इन्द्रयष्टि) जैसे प्रतीक सम्मिलित नहीं हैं, जबकि आयागपटों पर इनका बहुलता से अंकन हुआ है ।
ल० आठवीं से बारहवीं शती ई० के मध्य जैन देवकुल में हुए विकास के कारण जैन देवकुल के सदस्यों के स्वतन्त्र लाक्षणिक स्वरूप निर्धारित हुए जिसकी वजह से साहित्य पर कला की निर्भरता विभिन्न देवताओं के पहचान और उनके मूर्त चित्रणों की दृष्टि से बढ़ गई। तुलनात्मक अध्ययन में इस बात के निर्धारण का भी यत्न किया गया है कि विभिन्न क्षेत्रों और कालों में कलाकार किस सीमा तक ग्रन्थों के निर्देशों का निर्वाह कर रहा था । इस दृष्टि के कारण यह निश्चित किया जा सका है कि जहाँ ग्रन्थों में २४ जिनों के यक्ष-यक्षी युगलों का निरूपण आवश्यक विषयवस्तु था, वहीं शिल्प में सभी यक्ष-यक्षी युगलों को स्वतन्त्र अभिव्यक्ति नहीं मिली । विभिन्न स्थलों पर किस सीमा तक जैन परम्परा में अवर्णित देवों को अभिव्यक्ति प्रदान की गई, इसके निर्धारण का भी प्रयास किया गया है ।
दो या कई पुरातात्विक स्थलों के मूर्ति अवशेषों की क्षेत्रीय वृत्तियों और समान तत्वों की दृष्टि से तुलनात्मक परीक्षा की गई है । ऐसे अध्ययन के कारण ही यह निश्चित किया जा सका है कि देवगढ़ के मन्दिर १२ की २४ यक्षी मूर्तियों में से कुछ पर ओसिया के महावीर मन्दिर की महाविद्या मूर्तियों का प्रभाव है। यह प्रभाव वेताम्बर स्थल (ओसिया) के दिगम्बर स्थल (देवगढ़ ) पर प्रभाव की दृष्टि से और भी महत्वपूर्ण है । प्रतिहार शासकों के समय के दो कला केन्द्रों पर विषयवस्तु एवं प्रतिमा लाक्षणिक वृत्तियों की दृष्टि से क्षेत्रीय सन्दर्भ में प्राप्त भिन्नताओं का निर्धारण भी तुलनात्मक अध्ययन से ही हो सका है। ओसिया ( राजस्थान ) में जहाँ महाविद्याओं एवं जीवन्तस्वामी को प्राथमिकता दी गई, वहीं देवगढ़ ( उत्तर प्रदेश ) में २४ यक्षियों, भरत, बाहुबली एवं क्षेत्रपाल आदि को चित्रित किया गया । यह तुलनात्मक अध्ययन हिन्दू एवं बौद्ध सम्प्रदायों और साथ ही दक्षिण भारत के मूर्तिवैज्ञानिक तत्वों तक विस्तृत है ।
जैन देवकुल के २४ जिनों एवं यक्ष-यक्षी युगलों के स्वतन्त्र मूर्तिविज्ञान के अध्ययन में साहित्यिक साक्ष्यों एवं पदार्थगत अभिव्यक्तियों के आधार पर, कालक्रम के अनुसार उनके स्वरूप में हुए क्रमिक विकास का अध्ययन किया गया है । प्रतिमा लाक्षणिक विवेचन में, पहले संक्षेप में जिनों एवं यक्ष-यक्षियों की समूहगत सामान्य विशेषताओं का ऐतिहासिक सर्वेक्षण है । तदुपरान्त समूह के प्रत्येक देवी-देवता के प्रतिमा लक्षण की स्वतन्त्र विवेचना की गई है ।
सारांशतः, कार्य प्रणाली के लिए काल, क्षेत्र, साहित्य एवं पुरातत्व के बीच सामंजस्य, विभिन्न धर्मों की सम कालीन परम्पराओं का परस्पर प्रभाव, विकास के क्रम में होनेवाले पारंपरिक और अपारम्परिक परिवर्तन आदि तथ्यों, वृत्तियों एवं आयामों को आधार के रूप में अपनाया गया है ।
१ राज्य संग्रहालय, लखनऊ, जे२५३; स्ट०जै०आ०, पृ० ७७-७८
२ विस्तार के लिए द्रष्टव्य, स्ट०जे०आ०, पृ० १०९-१२
३ जैन सूची के अष्टमांगलिक चिह्न स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त, वर्धमानक, भद्रासन, कलश, दर्पण और मत्स्य ( या मत्स्ययुग्म) हैं; औपपातिक सूत्र ३१; त्रि०श०पु०च०, खं० १, गायकवाड़ ओरियण्टल सिरीज ५१, बड़ौदा, १९३१, पृ० ११२, १९०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org