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________________ निष्कर्ष ] २४९ मन्दिरों में २४ देवकुलिकाओं को संयुक्त कर उनमें २४ जिनों की मूर्तियां स्थापित करने की परम्परा लोकप्रिय हुई | उत्कीर्ण हुईं जिनमें स्वतन्त्र तथा द्वितीर्थी, श्वेतांबर स्थलों पर एकरसता और दिगंबर पीठिका -लेखों में जिनों के नामोल्लेख तथा श्वेतांबर स्थलों की तुलना में दिगंबर स्थलों पर जिनों की अधिक मूर्तियां त्रितीर्थी एवं चौमुखी मूर्तियां हैं । तुलनात्मक दृष्टि से जिनों के निरूपण में स्थलों पर विविधता दृष्टिगत होती है। श्वेतांबर स्थलों पर जिन मूर्तियों के दिगंबर स्थलों पर उनके लांछनों के अंकन की परम्परा दृष्टिगत होती है। जिनों के जीवन-दृश्यों एवं समवसरणों के अंकन के उदाहरण केवल श्वेतांबर स्थलों पर ही सुलभ हैं । ये उदाहरण (११ वीं - १३ वीं शती ई० ) ओसिया, कुम्भारिया, आबू (विमलवसही, लूणवसही) एवं जालोर से मिले हैं (चित्र १३, १४, २२, २९, ४०, ४१) । श्वेतांबर स्थलों पर जिनों के बाद १६ महाविद्याओं और दिगंबर स्थलों पर यक्ष-यक्षियों के चित्रण सर्वाधिक लोकप्रिय थे । १६ महाविद्याओं में रोहिणी, वज्जांकुशी, वज्रशृंखला, अप्रतिचक्रा, अच्छुप्ता एवं वैरोट्या की ही सर्वाधिक मूर्तियां मिली हैं । शान्तिदेवी, ब्रह्मशान्ति यक्ष, जीवन्तस्वामी महावीर, गणेश एवं २४ जिनों के माता-पिता के सामूहिक अंकन (१० वीं -१२ वीं शती ई०) भी श्वेतांबर स्थलों पर ही लोकप्रिय थे । सरस्वती, बलराम, कृष्ण, अष्टदिक्पाल, नवग्रह एवं क्षेत्रपाल आदि की मूर्तियां श्वेतांबर और दिगंबर दोनों ही स्थलों पर उत्कीर्ण हुई । श्वेतांबर स्थलों पर अनेक ऐसी देवियों की भी मूर्तियां दृष्टिगत होती हैं, जिनका जैन परम्परा में अनुल्लेख है । इनमें हिन्दू शिवा और कौमारी तथा जैन सर्वानुभूति के लक्षणों के प्रभाववाली देवियों की मूर्तियां सबसे अधिक हैं । जैन युगलों और राम-सीता तथा रोहिणी, मनोवेगा, गौरी, गान्धारी यक्षियों और गरुड यक्ष की मूर्तियां केवल दिगंबर स्थलों से ही मिली हैं । दिगंबर स्थलों से परम्परा विरुद्ध और परम्परा में अवर्णित दोनों प्रकार की कुछ मूर्तियां मिली हैं । द्वितोर्थी, त्रितीर्थो जिन मूर्तियों का अंकन और दो उदाहरणों में त्रितीर्थों मूर्तियों में सरस्वती और बाहुबली का अंकन, बाहुबली एवं अम्बिका की दो मूर्तियों (देवगढ़ एवं खजुराहो ) में यक्ष-यक्षी का अंकन तथा ऋषभ की कुछ मूर्तियों में पारम्परिक यक्ष-यक्षी के साथ ही अम्बिका, लक्ष्मी एवं सरस्वती आदि का अंकन इस कोटि के कुछ प्रमुख उदाहरण हैं (चित्र ६०-६५, ७५) । श्वेतांबर और दिगंबर स्थलों की शिल्प-सामग्री के अध्ययन से ज्ञात होता है कि पुरुष देवताओं की मूर्तियां देवियों की तुलना में नगण्य हैं। जैन कला में देवियों की विशेष लोकप्रियता तान्त्रिक प्रभाव का परिणाम हो सकती है । पांचवीं शती ई० के अन्त तक जैन देवकुल का मूलस्वरूप निर्धारित हो गया था, जिसमें २४ जिन, यक्ष और यक्षियां, विद्याएं, सरस्वती, लक्ष्मी, कृष्ण, बलराम, राम, नैगमेषी एवं अन्य शलाकापुरुष तथा कुछ और देवता सम्मिलित थे । इस काल तक जैन- देवकुल के सदस्यों के केवल नाम और कुछ सामान्य विशेषताएं ही निर्धारित हुईं । उनकी लाक्षणिक विशेषताओं के विस्तृत उल्लेख आठवीं से बारहवीं शती ई० के मध्य के जैन ग्रन्थों में ही मिलते हैं । पूर्णं विकसित जैन देवकुल में २४ जिनों एवं अन्य शलाकापुरुषों सहित २४ यक्ष-यक्षी युगल, १६ विद्याएं, दिक्पाल, नवग्रह, क्षेत्रपाल, गणेश, ब्रह्मशान्ति यक्ष, कर्पाद्द यक्ष, बाहुबली, ६४-योगिनी, शान्तिदेवी, जिनों के माता-पिता एवं पंचपरमेष्ठि आदि सम्मिलित हैं । श्वेतांबर और दिगंबर सम्प्रदायों के ग्रन्थों में जैन देवकुल का विकास बाह्य दृष्टि से समरूप है । केवल विभिन्न देवताओं के नामों एवं लाक्षणिक विशेषताओं के सन्दर्भ में ही दोनों परम्पराओं में भिन्नता दृष्टिगत होती है । महावीर के गर्भापहरण, जीवन्तस्वामी महावीर की मूर्ति एवं मल्लिनाथ के नारी तीर्थंकर होने के उल्लेख केवल श्वेतांबर ग्रन्थो में ही प्राप्त होते हैं । २४ जिनों की कल्पना जैन धर्म की धुरी है । ई० सन् के प्रारम्भ के पूर्व ही २४ जिनों की सूची निर्धारित हो गई थी । २४ जिनों की प्रारम्भिक सूचियां समवायांगसूत्र, भगवतीसूत्र, कल्पसूत्र एवं पउमचरिय में मिलती हैं । शिल्प में जिन मूर्ति का उत्कीर्णन ल० तीसरी शती ई० पू० में प्रारम्भ हुआ । कल्पसूत्र में ऋषभ, नेमि, पारखं और महावीर के जीवन-वृत्तों के विस्तार से उल्लेख हैं । परवर्ती ग्रन्थों में भी इन्हीं चार जिनों की सर्वाधिक विस्तार से चर्चा है । शिल्प में भी इन्हीं जिनों का अंकन सबसे पहले ( कुषाणकाल में) प्रारम्भ हुआ और विभिन्न स्थलों पर आगे भी इन्हीं की ३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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