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________________ सप्तम अध्याय निष्कर्ष जैन परम्परा में उत्तर भारत के केवल कुछ ही शासकों के जैन धर्म स्वीकार करने के उल्लेख हैं, जिनमें खारवेल, नागभट द्वितीय और कुमारपाल प्रमुख हैं । तथापि बारहवीं शती ई० तक के अधिकांश राजवंशों (पालों के अतिरिक्त) के शासकों का जैन धर्म के प्रति दृष्टिकोण उदार था, जिसके दो मुख्य कारण थे; प्रथम, भारतीय शासकों की धर्मसहिष्णु नीति और दूसरा, जैन धर्मं की व्यापारियों, व्यवसायियों एवं सामान्य जनों के मध्य विशेष लोकप्रियता । इसी सम्बन्ध में एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि जैन धर्म और कला को शासकों से अधिक व्यापारियों, व्यवसायियों एवं सामान्य जनों का समर्थन और सहयोग मिला। मथुरा के कुषाणकालीन मूर्तिलेखों तथा ओसिया, खजुराहो, जालोर एवं अन्य अनेक स्थलों के लेखों से इसकी पुष्टि होती है । जैन कला, स्थापत्य एवं प्रतिमाविज्ञान की दृष्टि से प्रतिहार, चन्देल और चौलुक्य राजवंशों का शासन काल (८ वी १२ वीं शती ई०) विशेष महत्वपूर्ण है । इन राजवंशों के समय में गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश के विस्तृत क्षेत्र में अनेक जैन मन्दिर बने और प्रचुर संख्या में मूर्तियों का निर्माण हुआ । इसी समय देवगढ़, खजुराहो, ओसिया, ग्यारसपुर, कुम्भारिया, आबू, जालोर, तारंगा एवं अन्य अनेक महत्वपूर्ण जैन कलाकेन्द्र पल्लवित और पुष्पित हुए । ल० आठवीं से बारहवीं शती ई० के मध्य जैन कला प्रभूत विकास में उपर्युक्त क्षेत्रों की सुदृढ़ आर्थिक पृष्ठभूमि का भी महत्व था । गुजरात के मड़ौंच, कैम्बे और सोमनाथ जैसे व्यापारिक महत्व के बन्दरगाहों, राजस्थान के पोरवाड़, श्रीमाल, ओसवाल, मोढेरक जैसी व्यापारिक जैन जातियों एवं मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में विदिशा, उज्जैन, मथुरा, कौशाम्बी, वाराणसी जैसे महत्वपूर्ण व्यापारिक स्थलों के कारण ही इन क्षेत्रों में अनेक जैन मन्दिर एवं विपुल संख्या में मूर्तियां बनीं। के पटना के समीप लोहानीपुर से मिली मौययुगीन मूर्ति प्राचीनतम जिन मूर्ति है (चित्र २) । चौसा और मथुरा से शुंग - कुषाण काल की जैन मूर्तियां मिली हैं । मथुरा से ल० १५० ई० पू० से ग्यारहवीं शती ई० के मध्य की प्रभूत जैन मूर्तियां मिली हैं । ये मूर्तियां आरम्भ से मध्ययुग तक के प्रतिमाविज्ञान की विकास-शृंखला को प्रदर्शित करती हैं। शुंगकुषाण काल में मथुरा में सर्वप्रथम जिनों के वक्षःस्थल पर श्रीवत्स चिह्न का उत्कीर्णन और जिनों का ध्यानमुद्रा में निरूपण प्रारम्भ हुआ । तीसरी से पहली शती ई० पू० की अन्य जिन मूर्तियां कायोत्सर्ग-मुद्रा में निरूपित हैं । ज्ञातव्य है कि जिनों के निरूपण में सर्वदा यही दो मुद्राएं प्रयुक्त हुई हैं । मथुरा में कुषाणकाल में ऋषभ, सम्भव, मुनिसुव्रत, नेमि, पार्श्व एवं महावीर की मूर्तियां, ऋषभ एवं महावीर के जीवनदृश्य, आयागपट, जिन चौमुखी तथा सरस्वती एवं नगमेषी की मूर्तियां उत्कीर्ण हुईं (चित्र १२, १६, ३०, ३४, ३९, ६६) । गुप्तकाल में मथुरा एवं चौसा के अतिरिक्त राजगिर, विदिशा, वाराणसी एवं अकोटा से भी जैन मूर्तियां मिली हैं (चित्र ३५) । इस काल में केवल जिनों की स्वतन्त्र एवं जिन चौमुखी मूर्तियां ही उत्कीर्ण हुईं। इनमें ऋषभ, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, नेमि, पार्श्व एवं महावीर का निरूपण है । श्वेतांबर जिन मूर्तियां (अकोटा, गुजरात) भी सर्वप्रथम इसी काल में बनीं (चित्र ३६) । ल० दसवीं से बारहवीं शती ई० के मध्य की जैन प्रतिमाविज्ञान की प्रभूत ग्रन्थ एवं शिल्प सामग्री प्राप्त होती है । सर्वाधिक जैन मन्दिर और फलतः मूर्तियां भी दसवीं से बारहवीं शती ई० श्वेतांबर एवं अन्य क्षेत्रों में दिगंबर सम्प्रदाय की मूर्तियों की प्रधानता है। के मध्य बनें। गुजरात और राजस्थान में गुजरात और राजस्थान के श्वेतांबर जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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