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________________ २५० [ जैन प्रतिमाविज्ञान सर्वाधिक मूर्तियां उत्कीर्णं हुईं । मूर्तियों के आधार पर लोकप्रियता के क्रम में ये जिन ऋषभ, पाखं, महावीर और नेमि हैं । यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इन जिनों की लोकप्रियता के कारण ही उनके यक्ष-यक्षी युगलों को भी जैन परम्परा और शिल्प में सर्वाधिक लोकप्रियता मिली। उपर्युक्त जिनों के बाद अजित, सम्भव, सुपार्श्व, चन्द्रप्रम, शान्ति एवं मुनिसुव्रत की सर्वाधिक मूर्तियां बनीं। अन्य जिनों की मूर्तियां संख्या की दृष्टि से नगण्य हैं । तात्पर्य यह कि उत्तर भारत में २४ में से केवल १० ही जिनों का अंकन लोकप्रिय था । दक्षिण भारत में पारखं और महावीर की सर्वाधिक मूर्तियां मिलती हैं । सर्वप्रथम पार्श्व का लक्षण स्पष्ट हुआ । जिन मूर्तियों में ल० दूसरी पहली शती ई० पू० में पार्श्व के साथ शीर्ष भाग में सात सर्प फणों के छत्र का प्रदर्शन किया गया । पारखं के बाद मथुरा एवं चौसा की पहली शती ई० की मूर्तियों ऋषभ के साथ जटाओं का प्रदर्शन हुआ । कुषाण काल में ही मथुरा में नेमि के साथ बलराम और कृष्ण का अंकन हुआ । इस प्रकार कुषाण काल तक ऋषभ, नेमि और पार्श्व के लक्षण निश्चित हुए । मथुरा में कुषाण काल में सम्भव, मुनिसुव्रत एवं महावीर की भी मूर्तियां उत्कीर्ण हुईं, जिनकी पहचान पीठिका-लेखों में उत्कीर्ण नामों के आधार पर की गई है । मथुरा में ही कुषाण काल में सर्वप्रथम जिन मूर्तियों में सात प्रातिहार्यो, धर्मचक्र, मांगलिक चिह्नों एवं उपासकों आदि का अंकन हुआ । गुप्तकाल में जिनों के साथ सर्वप्रथम लांछनों, यक्ष-यक्षी युगलों एवं अष्ट-प्रातिहायों का अंकन प्रारम्भ हुआ । राजगिर एवं भारत कला भवन, वाराणसी की नेमि और महावीर की दो मूर्तियों में पहली बार लांछन का, और अकोटा की ऋषभ की मूर्ति में यक्ष-यक्षी (सर्वानुभूति एवं अम्बिका) का चित्रण हुआ । गुप्त काल में सिंहासन के छोरों एवं परिकर में छोटी जिन मूर्तियों का भी अंकन प्रारम्भ हुआ । अकोटा की श्वेतांबर जिन मूर्तियों में पहली बार पीठिका के मध्य में धर्मचक्र के दोनों ओर दो मृगों का अंकन किया गया जो सम्भवतः बौद्ध कला का प्रभाव है । ल० आठवीं नवीं शती ई० में २४ जिनों के स्वतन्त्र लांछनों की सूची बनी, जो कहाचलो, प्रवचनसारोद्धार एवं तिलोयपण्णत्त में सुरक्षित है । खेतांबर और दिगंबर परम्पराओं में सुपार्श्व, शीतल, अनन्त एवं अरनाथ के अतिरिक्त अन्य जिनों के लांछनों में कोई भिन्नता नहीं है । मूर्तियों में सुपार्श्व तथा पार्श्व के साथ क्रमशः स्वस्तिक और सर्प लांछनों का अंकन दुर्लभ है क्योंकि पांच और सात सर्पफणों के छत्रों के प्रदर्शन के बाद जिनों की पहचान के लिए लांछनों का प्रदर्शन आवश्यक नहीं समझा गया। पर जटाओं से शोभित ऋषभ के साथ वृषभ लांछन का चित्रण नियमित था क्योंकि आठवीं शती ई० के बाद के दिगंबर स्थलों पर ऋषभ के साथ-साथ अन्य जिनों के साथ भी जटाएं प्रदर्शित की गयीं हैं । ल० नवीं दसवीं शती ई० तक मूर्तिविज्ञान की दृष्टि से जिन मूर्तियां पूर्णतः विकसित हो गईं। पूर्ण विकसित जिन मूर्तियों में लांछनों, यक्ष-यक्षी युगलों एवं अष्ट-प्रातिहार्यो के साथ ही परिकर में छोटी जिन मूर्तियों, नवग्रहों, गजाकृतियों, धर्मचक्र, विद्याओं एवं अन्य आकृतियों का अंकन हुआ (चित्र ७) । सिंहासन के मध्य में पद्म से युक्त शान्तिदेवी तथा गजों एवं मृगों का निरूपण केवल श्वेतांबर स्थलों पर लोकप्रिय था (चित्र २०, २१) । ग्यारहवीं से तेरहवीं शती ई० के मध्य श्वेतांबर स्थलों पर ऋषभ, शान्ति, मुनिसुव्रत, नेमि, पार्ख एवं महावीर के जीवनदृश्यों का विशद अंकन भी हुआ, जिसके उदाहरण ओसिया की देवकुलिकाओं, कुम्भारिया के शान्तिनाथ एवं महावीर मन्दिरों, जालोर के पार्श्वनाथ मन्दिर और आबू के विमलवसही और लूणवसही से मिले हैं। इनमें जिनों के पंचकल्याणकों (च्यवन, जन्म, दीक्षा, कैवल्य, निर्वाण) एवं कुछ अन्य महत्वपूर्ण घटनाओं को दरशाया गया है, जिनमें भरत और बाहुबली के युद्ध, शान्ति के पूर्वजन्म में कपोत की प्राणरक्षा की कथा, नेमि के विवाह, मुनिसुव्रत के जीवन की अश्वावबोध और शकुनिका - विहार की कथाएं तथा पार्श्व एवं महावीर के उपसगं प्रमुख हैं । उत्तरप्रदेश एवं मध्यप्रदेश के दिगंबर स्थलों पर मध्ययुग में नेमि के साथ बलराम और कृष्ण, पार्श्व के साथ सर्पफणों के छत्र वाले चामरधारी धरण एवं छत्रधारिणी पद्मावती तथा जिन मूर्तियों के परिकर में बाहुबली, जीवन्तस्वामी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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