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यक्ष-यक्षी-प्रतिमाविज्ञान ]
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कि वर्धमान की यक्षी का नाम कामचण्डालिनी भी हैं। जो निर्वस्त्र और चतुर्भुजा है। विभिन्न आभूषणों से सज्जित देवी के केश मुक्त हैं और उसके हाथों में फल, कलश, दण्ड एवं डमरु दृष्टिगत होते हैं।
सिद्धायिका के निरूपण में पुस्तक एवं वीणा (श्वेतांबर) का प्रदर्शन सरस्वती (वाग्देवी) का प्रभाव प्रतीत होता है। यक्षी का सिंहवाहन सम्भवतः महावीर के सिंह लांछन से ग्रहण किया गया है।
दक्षिण भारतीय परम्परा-दिगंबर ग्रन्थ में द्विभुजा यक्षी का वाहन हंस है और उसके हाथों में अभयमुद्रा एवं मुद्रा (वरद ?) हैं। अज्ञातनाम श्वेतांबर ग्रन्थ में यक्षी द्वादशभुजा है और उसका वाहन गरुड है। उसके करों में असि, फलक, पुष्प, शर, चाप, पाश, चक्र, दण्ड, अक्षसूत्र, वरदमुद्रा, नीलोत्पल एवं अभयमुद्रा वर्णित हैं। यक्ष-यक्षी-लक्षण में यक्षी को द्विभुजा बताया गया है, पर आयुधों का अनुल्लेख है। मूर्ति-परम्परा
अम्बिका, चक्रेश्वरी एवं पद्मावती की तुलना में सिद्धायिका की स्वतन्त्र मूर्तियों की संख्या नगण्य है । मूर्त अंकानों में यक्षी का पारम्परिक और स्वतन्त्र स्वरूप दसवीं-ग्यारहवीं शती ई० में अभिव्यक्त हुआ। जिन-संयुक्त मूर्तियों में यक्षी अधिकांशतः सामान्य लक्षणों वाली है। राजपूताना संग्रहालय, अजमेर (२७९), कुम्भारिया (शान्तिनाथ मन्दिर), ग्यारसपुर (मालादेवी मन्दिर), खजुराहो एवं देवगढ़ की कुछ महावीर मूर्तियों में स्वतन्त्र लक्षणों वाली यक्षी आमूर्तित है ।
गुजरात-राजस्थान (क) स्वतन्त्र मूर्तियां-यू० पी. शाह ने श्वेतांबर स्थलों से प्राप्त चतुर्भुजा सिद्धायिका की तीन स्वतन्त्र मूर्तियों (१२ वीं शती ई०) का उल्लेख किया है। सभी उदाहरणों में श्वेतांबर परम्परा के अनुरूप सिंहवाहना सिद्धायिका पुस्तक एवं वीणा से युक्त है। विमलवसही के रंगमण्डप के स्तम्भ की मूर्ति में सिंहवाहना यक्षी त्रिभंग में खड़ी है। यक्षी के तीन अवशिष्ट करों में वरदमुद्रा, पुस्तक एवं वीणा हैं। दूसरी मूर्ति कैम्बे के मन्दिर से मिली है। ललितमुद्रा में विराजमान सिंहवाहना यक्षी के हाथों में अभयमुद्रा, पुस्तक, वीणा एवं फल प्रदर्शित हैं। समान विवरणों वाली तीसरी मूर्ति प्रभासपाटण से प्राप्त हुई है।
(ख) जिन-संयुक्त मूर्तियां-इस क्षेत्र की दो महावीर मूर्तियों के अतिरिक्त अन्य सभी में यक्षी के रूप में अम्बिका निरूपित है। राजपूताना संग्रहालय, अजमेर की मूर्ति (२७९) में द्विभुजा यक्षो का वाहन सिंह है और उसकी एक सुरक्षित भुजा में खड्ग प्रदर्शित है। यहां उल्लेखनीय है कि दिगंबर परम्परा के विपरीत सिंहवाहना सिद्धायिका के
डग का प्रदर्शन खजुराहो एवं देवगढ़ की दिगंबर मूर्तियों में भी प्राप्त होता है। कुम्भारिया के शान्तिनाथ मन्दिर के वितान की मूर्ति में पक्षीवाहन वाली यक्षो चतुर्भुजा है और उसके हाथों में वरदमुद्रा, सनालपद्म, सनालपद्म एवं फल प्रदर्शित हैं। यक्षी का निरूपण निर्वाणी यक्षी या शान्तिदेवी से प्रभावित है।
१ वर्द्धमान जिनेन्द्रस्य यक्षी सिद्धायिका मता। तद्देव्यपरनाम्ना च कामचण्डालिसंज्ञका ॥ भूषितामरणः सर्वेर्मुक्तकेशा दिगंबरी। पातु मां कामचण्डाली कृष्णवर्णा चतुर्भुजा ।। फलकांचनकलशकरा शाल्मलिदण्डोच्यडमरुयुग्मोपेता। जपत (?) स्त्रिभुवनवंद्या वश्या जगति श्रीकामचण्डाली ॥ विद्यानुशासन। शाह, यू० पी०, 'यक्षिणी ऑव दि ट्वेन्टी-फोर्थ जिन महावीर', ज०ओ०ई०, खं० २२, अं० १-२, पृ० ७७ २ भट्टाचार्य, बी० सी०, पू०नि०, पृ० १४६-४७; विस्तार के लिए द्रष्टव्य, तिवारी, एम० एन० पी०, 'दि आइ
कानोग्राफी ऑव यक्षी सिद्धायिका',ज०ए०सो०, खं० १५, अं० १-४, पृ० ९७-१०३ ३ रामचन्द्रन, टी० एन०, पू०नि०, पृ० २११-१२
४ शाह, यू० पी, पू०नि०, पृ०७१
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