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________________ [ जैन प्रतिमाविज्ञान उत्तरप्रदेश - मध्यप्रदेश — (क) स्वतन्त्र मूर्तियां - इस क्षेत्र से यक्षी की तीन मूर्तियां मिली हैं ।" देवगढ़ के मन्दिर १२ (८६२ ई०) के सामूहिक चित्रण में वर्धमान के साथ 'अपराजिता' नाम की सामान्य लक्षणों वाली द्विभुजा यक्षी आमूर्ति है । यक्षी का दाहिना हाथ जानु पर है और बायें में चामर या पद्म है। खजुराहो के मन्दिर २४ के उत्तरंग ( ११ वीं शती ई०) पर चतुर्भुजा यक्षी ललितमुद्रा में आसीन है । सिंहवाहना यक्षी के करों में वरदमुद्रा, खड्ग, खेटक एवं जलपात्र हैं । बिल्कुल समान लक्षणों वाली दूसरी मूर्ति देवगढ़ के मन्दिर ५ के उत्तरंग (११ वीं शती ई०) पर उत्कीर्ण है । उपर्युक्त दोनों मूर्तियों में यक्षी का चतुर्भुज होना और उसके करों में खड्ग एवं खेटक का प्रदर्शन दिगंबर परम्परा के विरुद्ध है । सिंहवाहना यक्षी के साथ खड्ग एवं खेटक का प्रदर्शन १६ वीं जैन महाविद्या महामानसी का भी प्रभाव हो सकता है । 3 1 २४६ (ख) जिन-संयुक्त मूर्तियां - इस क्षेत्र में महावीर की मूर्तियों में ल० दसवीं शती ई० में यक्ष-यक्षी का अंकन प्रारम्भ हुआ । अधिकांश उदाहरणों में सामान्य लक्षणों वाली द्विभुजा यक्षी अभयमुद्रा ( या पुष्प ) एवं फल ( या कलश) से युक्त है | मालादेवी मन्दिर ( ग्यारसपुर, म० प्र०) की महावीर मूर्ति (१० वीं शती ई०) में द्विभुजा यक्षी के दोनों हाथों में वीणा है । देवगढ़ की छह महावीर मूर्तियों में सामान्य लक्षणों वाली द्विभुजा यक्षी अभयमुद्रा (पुष्प) एवं कलश ( या फल ) से युक्त है । साहू जैन संग्रहालय, देवगढ़ के चौबीसी जिन पट्ट (१२ वीं शती ई०) की महावीर मूर्ति में द्विभुजा यक्षी अभयमुद्रा एवं पुस्तक से युक्त है । पुस्तक का प्रदर्शन दिगंबर परम्परा का पालन है । देवगढ़ के मन्दिर १ की मूर्ति (१० वीं शती ई०) में चतुर्भुजा यक्षी के करों में अभयमुद्रा, पद्मकलिका, पद्मकलिका एवं फल प्रदर्शित हैं । देवगढ़ के मन्दिर ११ की मूर्ति (१०४८ ई०) में द्विभुजा यक्षी पद्मावती एवं अम्बिका की विशेषताओं से युक्त है। तीन सर्पफणों के छत्र वाली यक्षी हाथों में फल एवं बालक हैं । उपर्युक्त से स्पष्ट है कि देवगढ़ में सिद्धायिका का कोई स्वतन्त्र स्वरूप नियत नहीं हुआ । खजुराहो की तीन महावीर मूर्तियों में द्विभुजा यक्षी अभयमुद्रा एवं फल ( या पद्म) से युक्त है। खजुराहो के मन्दिर २ को मूर्ति में सिंहवाहना यक्षी चतुर्भुजा है और उसके करों में फल, चक्र, पद्म एवं शंख स्थित । मन्दिर २१ की दीवार की मूर्ति में भी सिंहवाहना यक्षी चतुर्भुजा है और उसके हाथों में वरदमुद्रा, खड्ग, चक्र एवं फल हैं । खजुराहो के स्थानीय संग्रहालय की तीसरी मूर्ति (के १७) में भी चतुर्भुजा यक्षी का वाहन सिंह है और उसके तीन सुरक्षित हाथों में चक्र (छल्ला), पद्म एवं शंख प्रदर्शित हैं । ग्यारहवीं शती ई० की उपर्युक्त तीनों ही मूर्तियों में यक्षी के निरूपण की एकरूपता से ऐसा आभास होता है कि खजुराहो में चतुर्भुजा सिद्धायिका के एक स्वतन्त्र स्वरूप की कल्पना की गई । यक्षी के साथ वाहन (सिंह) तो पारम्परिक है, पर हाथों में चक्र एवं शंख का प्रदर्शन हिन्दू वैष्णवी से प्रभावित प्रतीत होता है । बिहार - उड़ीसा - बंगाल —- इस क्षेत्र में केवल बारभुजी गुफा (उड़ीसा) से ही यक्षी की एक मूर्ति मिली है (चित्र ५९ ) । महावीर के साथ विशतिभुजा यक्षी निरूपित है । गजवाहना यक्षी के दाहिने हाथों में वरदमुद्रा, शूल, अक्षमाला, बाण, दण्ड (?), मुद्गर, हल, वज्र, चक्र एवं खड्ग और बायें में कलश, पुस्तक, फल (?), पद्म, घण्टा (?), धनुष, नागपाश एवं खेटक स्पष्ट हैं । " पुस्तक एवं गजवाहन का प्रदर्शन पारम्परिक है । दक्षिण भारत - दक्षिण भारत में यक्षी का न तो पारम्परिक स्वरूप में अंकन हुआ और न ही उसका कोई स्वतन्त्र स्वरूप निर्धारित हुआ । महावीर की मूर्तियों में यक्ष-यक्षी का निरूपण ल० सातवीं शती ई० में ही प्रारम्भ हो गया । बादामी २ जि०६० दे०, पृ० १०२, १०५ १ ये मूर्तियां खजुराहो एवं देवगढ़ से मिली हैं । ३ महाविद्या महामानसी का वाहन सिंह है और उसके करों में वरद ( या अभय - ) मुद्रा, खड्ग, कुण्डिका एवं खेटक प्रदर्शित हैं । ४ स्मरणीय है कि सिद्धायिका की भुजा में वीणा का उल्लेख श्वेतांबर परम्परा में प्राप्त होता है । ५ मित्रा, देबला, पु०नि०, पृ० १३३ : दो वाम करों के आयुध स्पष्ट नहीं हैं । ६ गजवाहन का उल्लेख केवल श्वेतांबर परम्परा में प्राप्त होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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