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जैन प्रतिमाविज्ञान
खड्ग, शूल, अर्धचन्द्र (वालेन्दु), गदा एवं मुसल वर्णित हैं । चतुर्विंशतिभुज यक्षी के करों में शंख, खड्ग, चक्र, अर्धचन्द्र ( वालेन्दु), पद्म, उत्पल, धनुष ( शरासन), शक्ति, पाश, अंकुश, घण्टा, बाण, मुसल, खेटक, त्रिशूल, परशु, कुंत, भिण्ड, माला, फल, गदा, पत्र, पल्लव एवं वरदमुद्रा के प्रदर्शन का निर्देश है ।' प्रतिष्ठासारोद्धार में भी कुक्कुट सर्प पर आरूढ़ एवं तीन सर्पफणों के छत्र से युक्त यक्षी का सम्भवतः चतुर्विंशतिभुज रूप में ही ध्यान है । पद्म पर आसीन यक्षी के करों में अंकुश, पाश, शंख, पद्म एवं अक्षमाला आदि प्रदर्शित हैं । प्रतिष्ठातिलकम् में भी सम्भवतः चतुर्विंशतिभुज पद्मावती काही ध्यान किया गया है । पद्मस्थ यक्षी के छह हाथों में पाश आदि और शेष में शंख, खड्ग, अंकुश, पद्म, अक्षमाला एवं वरदमुद्रा आदि के प्रदर्शन का निर्देश है । ग्रन्थ में वाहन का अनुल्लेख है । अपराजितपृच्छा में चतुर्भुजा पद्मावतो का वाहन कुक्कुट और करों के आयुध पाश, अंकुश, पद्म एवं वरदमुद्रा हैं ।
धरणेन्द्र (पाताल देव ) की भार्या होने के कारण ही पद्मावती के साथ सर्प (कुक्कुट सर्प एवं सर्पफण का छत्र) को सम्बद्ध किया गया । जैन परम्परा में उल्लेख है कि पार्श्वनाथ का जन्म-जन्मान्तर का शत्रु कमठ दूसरे भव में कुक्कुटसर्प के रूप में उत्पन्न हुआ था । पद्मावती के वाहन के रूप में कुक्कुट सर्प का उल्लेख सम्भवतः उसी कथा से प्रभावित और पार्श्वनाथ के शत्रु पर उसकी यक्षी (पद्मावती) के नियन्त्रण का सूचक है। यक्षी के नाम, पद्मा या पद्मावती को यक्षी की भुजा में पद्म के प्रदर्शन से सम्बन्धित किया जा सकता है। पद्मावती को हिन्दू देवकुल की सर्प से सम्बद्ध लोकदेवी मनसा से भी सम्बद्ध किया जाता है । मनसा को पद्मा या पद्मावती नामों से भी सम्बोधित किया गया है ।" पर जैन यक्षी की लाक्षणिक विशेषताएं मनसा से पूर्णतः भिन्न हैं । हिन्दू परम्परा में शिव की शक्ति के रूप में भी पद्मावती ( या परा) का उल्लेख है । ऐसे स्वरूप में नाग पर आरूढ़ एवं नाग की माला से शोभित चतुर्भुजा पद्मावती त्रिनेत्र, अर्धचन्द्र से सुशोभित तथा करों में माला, कुम्भ, कपाल एवं नीरज से युक्त है । ज्ञातव्य है कि नाग से सम्बद्ध जैन पद्मावती को. दिगंबर परम्परा में पद्म, माला एवं अर्धचन्द्र से युक्त बताया गया है। भैरव-पद्मावती कल्प में यक्षी को त्रिनेत्र भी कहा गया है ।
१ बी० सी० भट्टाचार्य ने प्रतिष्ठासारसंग्रह की आरा की पाण्डुलिपि के आधार पर वज्र एवं शक्ति का उल्लेख किया है । द्रष्टव्य, भट्टाचार्य, बी० सी० पू०नि०, पृ० १४४
२ येष्टुं कुकंटसर्प गात्रिफणकोत्तंसाद्विषोयात
षट्
पाशादिः सदसत्कृते च धृतशंखास्पादिदो अष्टका ।
तां शान्तामरुणां स्फुरच्छ्रणिसरोजन्माक्षव्यालाम्बरां
पद्मस्थां नवहस्तक प्रभुनतां यायज्मि पद्मावतीम् । प्रतिष्ठासारोद्धार ३. १७४
३ पाशाद्यन्वितषड्भुजारिजयदा ध्याता चतुविशति ।
शंखास्यादियुतान्करांस्तु दधती या क्रूरशान्त्यर्थंदा ||
शान्त्यं सांकुशवारिजाक्षमणिसद्दानैश्चतुर्भिः करैर्युक्ता ।
तां प्रयजामि पार्श्वविनतां पद्मस्थपद्मावतीम् ॥ प्रतिष्ठातिलकम् ७.२३, पृ० ३४७-४८
४ पाशाङ्कुश पद्मवरे रक्तवर्णां चतुर्भुजा ।
पद्मासना कुक्कुटस्था ख्याता पद्मावतीतिच ॥ अपराजितपृच्छा २२१.३७
५ बनर्जी, जे० एन०, पु०नि०, पृ० ५६३
६ ॐ नागाधीश्वरविष्टरां फणिफणोत्तं सोरुरत्नावली
भास्वद्देहलतां दिवाकरनिभां नेत्रत्रयोद्भासिताम् ।
माला कुम्भकपालनीरजकरां चन्द्रार्धचूडां परां
सर्वज्ञेश्वर भैरवाङ्गनिलयां पद्मावतीं चिन्तये || मारकण्डेयपुराण : अध्याय ८६ ध्यानम्
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