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________________ २३४ [ जैन प्रतिमाविज्ञान सामान्य लक्षणों वाले हैं।' मन्दिर ९ की दसवीं शती ई० की एक मूर्ति में यक्ष-यक्षी तीन सर्पफणों के छत्र से युक्त हैं । मन्दिर १२ के समीप की एक अरक्षित मूर्ति (११ वीं शती ई०) में एक सपंफण के छत्र से युक्त यक्ष-यक्षी चतुर्भुज हैं । यक्ष के हाथों में अभयमुद्रा, सर्प, पाश एवं कलश हैं । इस मूर्ति के अतिरिक्त अन्य किसी उदाहरण में देवगढ़ में पार्श्व के साथ पारम्परिक यक्ष-यक्षी नहीं निरूपिते हुए । खजुराहो की केवल चार मूर्तियों (११ वीं - १२ वीं शती ई०) में यक्ष-यक्षी आमूर्तित हैं। स्थानीय संग्रहालय (के १००) की एक मूर्ति (११ वीं शती ई०) में पांच सपंफणों से शोमित द्विभुज यक्ष फल (?) एवं फल से युक्त है । पुरातात्विक संग्रहालय, खजुराहो की एक मूर्ति (१६१८, १२ वीं शती ई०) में सर्पफणों की छत्रावली से युक्त यक्ष नमस्कारमुद्रा में निरूपित है । स्थानीय संग्रहालय (के ५) की एक मूर्ति (११ वीं शती ई०) में चतुर्भुज यक्ष के दो अवशिष्ट करों में पद्म एवं फल हैं । स्थानीय संग्रहालय (के ६८ ) की एक अन्य मूर्ति में पांच सर्पफणों के छत्र वाले चतुर्भुज यक्ष के करों में अभयमुद्रा, शक्ति (?), सर्प एवं कलश प्रदर्शित हैं । खजुराहो में यद्यपि धरण का कोई निश्चित स्वरूप नहीं नियत हुआ, पर शीर्षभाग में सर्प फणों के छत्र का चित्रण अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा नियमित था । राज्य संग्रहालय, लखनऊ की पार्श्वनाथ की केवल चार ही मूर्तियों में यक्ष-यक्षी उत्कीर्णित हैं। नवीं दसवीं शती ई० की तीन मूर्तियों में द्विभुज यक्ष की दाहिनी भुजा में फल और बायों में धन का थैला हैं । ग्यारहवीं शती ई० की चौथी मूर्ति (जे ७९४ ) में पांच सपंफणों वाले चतुर्भुज यक्ष के सुरक्षित दाहिने हाथों में फल एवं पद्म प्रदर्शित हैं । दक्षिण भारत - उत्तर भारत के दिगंबर स्थलों के समान ही दक्षिण भारत में भी पार्श्वनाथ के सिंहासन के छोरों पर यक्ष-यक्ष का निरूपण लोकप्रिय नहीं था । दक्षिण कन्नड़ क्षेत्र की एक पार्श्वनाथ मूर्ति (१० वीं - ११ वीं शती ई० ) में एक सर्पंफण के छत्र से युक्त यक्ष चतुर्भुज है । यक्ष के तीन सुरक्षित करों में गदा, कलश और अभयमुद्रा हैं ।" कन्नड़ शोध संस्थान संग्रहालय (एस० सी०५३) की मूर्ति में चतुर्भुज यक्ष के हाथों में पद्म (?), पाश, परशु एवं फल हैं। प्रिंस ऑव वेल्स म्यूजियम, बम्बई में दो स्वतन्त्र चतुर्भुज मूर्तियां हैं। एक उदाहरण में तीन सर्पफणों के छत्र से युक्त यक्ष कूर्म पर आरूढ़ है और उसके करों में वरदमुद्रा, सर्प, सर्प एवं नागपाश प्रदर्शित हैं। तीन सर्पफणों के छत्र से युक्त दूसरी मूर्ति (१२ वीं शती ई०) में यक्ष के हाथों में सनाल पद्म, गदा, पाश (नाग ?) एवं वरदमुद्रा हैं ।' यक्ष ललितमुद्रा में है । 1" विश्लेषण सम्पूर्ण अध्ययन से स्पष्ट है कि उत्तर भारत में जैन परम्परा के विपरीत यक्ष का द्विभुज स्वरूप में निरूपण ही विशेष लोकप्रिय था । केवल कुछ ही उदाहरणों में यक्ष चतुर्भुज है ।" यक्ष की स्वतन्त्र मूर्तियों का उत्कीर्णन नवीं शती ई० १ इनके करों में अभयमुद्रा (या गदा ) एवं कलश ( या फल या धन का थैला) प्रदर्शित हैं । २ अन्य उदाहरणों में धरण एवं पद्मावती की क्रमशः चामर एवं छत्र (या चामर) से युक्त आकृतियां उत्कीर्ण हैं । ३ जी ३१०, जे ८८२, ४०.१२१ ४ बादामी एवं अयहोल की मूर्तियों में दोनों पावों में धरणेन्द्र और पद्मावती को क्रमशः नमस्कार- मुद्रा में (या अभयमुद्रा व्यक्त करते हुए) और छत्र धारण किये हुए दिखाया गया है । धरणेन्द्र सर्पफण के छत्र से रहित और पद्मावती उससे युक्त हैं । ५ हाडवे, डब्ल्यू ० एस ०, 'नोट्स आन टू जैन मेटल इमेजेज, रूपम अं० १७, पृ० ४८-४९ ६ अन्निगेरी, ए० एम०, ए गाइड टू दि कन्नड़ रिसर्च इन्स्टिट्यूट म्यूजियम, धारवाड़, १९५८, पृ० १९ ७ संकलिया, एच० डी०, 'जैन यक्षज ऐण्ड यक्षिणीज', बु०ड०का०रि०इं०, खं० १, अं० २-४, पृ० १५७-५८; जे०क०स्था०, खं० ३, पृ० ५८३-८४ ८ यह पाताल यक्ष की भी मूर्ति हो सकती है । ९ चतुर्भुज मूर्तियां देवगढ़, खजुराहो, राज्य संग्रहालय, लखनऊ, विमलवसही एवं लूणवसही से मिली हैं । दिगंबर स्थलों पर चतुर्भुज यक्ष की अपेक्षाकृत अधिक मूर्तियां हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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