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________________ यक्ष यक्षी - प्रतिमाविज्ञान ] २३३ कूर्म पर आरूढ़ चतुर्भुज यक्ष के करों में कलश, पाश, अंकुश एवं मातुलिंग वर्णित हैं । यक्ष-यक्षी लक्षण में कलश के स्थान पर पद्म (? उत्फुल्लधर ) एवं शीर्षभाग में एक सर्पफण के छत्र के प्रदर्शन का उल्लेख है । १ मूर्ति-परम्परा पार्श्व या धरण यक्ष के निरूपण में केवल सर्पफणों एवं कभी-कभी हाथ में सर्प के प्रदर्शन में ही ग्रन्थों के निर्देशों का पालन हुआ है । ल० नवीं शती ई० में यक्ष की मूर्तियों का उत्कीर्णन प्रारम्भ हुआ । (क) स्वतन्त्र मूर्तियां - पार्श्व यक्ष की स्वतन्त्र मूर्तियां (९ वीं - १३ वीं शती ई०) केवल ओसिया (महावीर मन्दिर), ग्यारसपुर ( मालादेवी मन्दिर) एवं लूणवसही से मिली हैं । लूणवसही की मूर्ति में यक्ष चतुर्भुज है और अन्य उदाहरणों में द्विभुज है । ओसिया के महावीर मन्दिर (श्वेतांबर, ल० ९ वीं शती ई०) से पार्श्व की दो मूर्तियां मिली हैं । एक मूर्ति गूढमण्डप की पूर्वी भित्ति पर है जिसमें सात सर्पंफणों के छत्र से युक्त यक्ष स्थानक - मुद्रा में है और उसके सुरक्षित बायें हाथ में पुष्प है । दूसरी मूर्ति अर्धमण्डप के स्तम्भ पर उत्कीर्ण है । इसमें त्रिसर्पफणों से शोभित एवं ललितमुद्रा में आसीन यक्ष के दाहिने हाथ का आयुध अस्पष्ट है, पर बायें में सम्भवतः सर्प है । ग्यारसपुर के मालादेवी मन्दिर (दिगंबर, १० वीं शती ई०) की मूर्ति में पांच सर्पफणों के छत्र से युक्त धरण पद्मासन पर त्रिभंग में खड़ा है। दाहिना हाथ अभयमुद्रा में है और बायें में कमण्डलु है । लूणवसही ( स्वेतांबर, १३ वीं शती ई० का गूढमण्डप के दक्षिणी प्रवेश द्वार पर है जिसमें तीन अवशिष्ट करों में वरदाक्ष, सर्प एवं सर्प प्रदर्शित हैं । पूर्वार्ध) की मूर्ति (ख) जिन-संयुक्त मूर्तियां — पार्श्वनाथ की मूर्तियों में यक्ष-यक्षी का अंकन ल० दसवीं ग्यारहवीं शती ई० में प्रारम्भ हुआ । ज्ञातव्य है कि दिगंबर स्थलों पर पार्श्वनाथ की मूर्तियों में सिंहासन या पीठिका के छोरों पर यक्ष-यक्षी का चित्रण नियमित नहीं था । गुजरात और राजस्थान की सातवीं से बारहवीं शती ई० की श्वेतांबर परम्परा की पार्श्वनाथ की मूर्तियों में यक्ष-यक्षी सर्वानुभूति एवं अम्बिका हैं । अकोटा, ओसिया (१०१९ ई०) एवं कुम्भारिया (पार्श्वनाथ मन्दिर, १२ वीं शती ई०) की कुछ पारवनाथ की मूर्तियों में सर्वानुभूति एवं अम्बिका के सिरों पर सर्पफणों के छत्र भी प्रदर्शित हैं जो पार्श्वनाथ का प्रभाव है । विमलवसही की देवकुलिका ४ (११८८ ई०) की अकेली मूर्ति में पार्श्वनाथ के साथ पारम्परिक यक्ष निरूपित है । कूर्म पर आरूढ़ एवं तीन सर्पफणों के छत्र से युक्त चतुर्भुज पाश्र्व गजमुख है और करों में मोदकपात्र, सर्प, सर्प एवं धन का थैला " लिये है । एक हाथ में मोदकपात्र का प्रदर्शन और यक्ष का गजमुख होना गणेश का प्रभाव I उत्तरप्रदेश एवं मध्यप्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों की पार्श्वनाथ की मूर्तियों में भी यक्ष-यक्षी अंकित हैं । देवगढ़ की तीस मूर्तियों में से केवल सात ही में (१० वीं ११ वीं शती ई०) यक्ष-यक्षी निरूपित हैं। छह उदाहरणों में द्विभुज यक्ष-यक्षी १ रामचन्द्रन, टी० एन० पू०नि०, पृ० २१० २ शीर्षभाग के सर्पफणों की संख्या ( १, ३, ५, ७) कभी स्थिर नहीं हो सकी । ३ यह मूर्ति मण्डप के उत्तरी जंघा पर है । ४ दिगंबर स्थलों की अधिकांश मूर्तियों में यक्ष-यक्षी के स्थान पर मूलनायक के पावों में सर्पफणों के छत्रों से युक्त दो स्त्री-पुरुष आकृतियां उत्कीर्ण हैं, जो धरण और पद्मावती हैं । यह उस समय का अंकन है जब कमठ के उपसर्ग से पार्श्वनाथ की रक्षा के लिए धरणेन्द्र पद्मावती के साथ देवलोक से पार्श्वनाथ के निकट आया था । ऐसी मूर्तियों में धरण सामान्यतः चामर ( या घट) और पद्म ( या फल) से युक्त है तथा पद्मावती के दोनों हाथों में एक लम्ब छत्र प्रदर्शित है जिसका ऊपरी भाग पार्श्व के मस्तक के ऊपर है । यह चित्रण परम्परासम्मत है । कुछ मूर्तियों (विशेषत: देवगढ़) में इन आकृतियों के साथ ही सिंहासन छोरों पर यक्ष-यक्षी भी निरूपित हैं । ५ यह नकुल भी हो सकता है । ६ अन्य उदाहरणों में सामान्यतः चामरधारी धरणेन्द्र एवं छत्र या चामरधारिणी पद्मावती आमूर्तित हैं । ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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