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________________ २३२ (२३) पार्श्व ( या धरण ) यक्ष शास्त्रीय परम्परा पाव ( या धरण) जिन पार्श्वनाथ का यक्ष है । श्वेतांबर परम्परा में यक्ष को पार्श्व' और दिगंबर परम्परा में धरण कहा गया है । दोनों परम्पराओं में सर्पफणों के छत्र से युक्त चतुर्भुज यक्ष का वाहन कूर्म है । श्वेतांबर परम्परा में पार्श्व को गजमुख बताया गया है । श्वेतांबर परम्परा – निर्वाणकलिका में गजमुख पार्श्व यक्ष का वाहन कूर्म है । सर्पफणों के छत्र से युक्त पार्श्व के दक्षिण करों में मातुलिंग एवं उरग और वाम में नकुल एवं उरग वर्णित हैं । अन्य ग्रन्थों में भी सामान्यतः इन्हीं लक्षणों के उल्लेख हैं । केवल दो ग्रन्थों में दाहिने हाथ में उरग के स्थान पर गदा के प्रदर्शन का निर्देश है ।४ [ जैन प्रतिमाविज्ञान दिगंबर परम्परा - प्रतिष्ठासारसंग्रहमें कूर्म पर आरूढ़ धरण के आयुधों का अनुल्लेख है । " प्रतिष्ठासारोद्धार में सर्पफणों से शोभित धरण के दो ऊपरी हाथों में सर्प और निचले हाथों में नागपाश एवं वरदमुद्रा उल्लिखित हैं । " अपराजितपृच्छा में सर्परूप पार्श्व यक्ष को षड्भुज बताया गया है और उसके करों में धनुष, बाण, भृण्डि, मुद्गर, फल एवं वरदमुद्रा के प्रदर्शन का निर्देश है । ७ यक्ष का नाम (धरणेन्द्र या धरणीधर) सम्भवतः शेषनाग (नागराज ) से प्रभावित है । शीर्षभाग में सर्पछत्र एवं हाथ में सर्प का प्रदर्शन भी यही सम्भावना व्यक्त करता है । यक्ष के हाथ में वासुकि के प्रदर्शन का निर्देश है जो हिन्दू परम्परा के अनुसार सर्पराज और काश्यप का पुत्र है । यक्ष के साथ कूर्मवाहन का प्रदर्शन सम्भवतः कमठ ( कम ) पर उसके प्रभुत्व का सूचक हैं, जो उसके स्वामी (पार्श्वनाथ) का शत्रु था । " दक्षिण भारतीय परम्परा - दिगंबर ग्रन्थ में पांच सर्पफणों से आच्छादित चतुर्भुज यक्ष का वाहन कूर्मं कहा गया है । यक्ष के ऊपरी हाथों में सर्प और निचले में अभय एवं कटक मुद्राओं का उल्लेख है । अज्ञातनाम श्वेतांबर ग्रन्थ में १ प्रवचनसारोद्धार में वामन नाम से उल्लेख है । २ पार्श्वयक्षं गजमुखमुरगफणामण्डितशिरसं श्यामवर्णं कूर्मवाहनं चतुर्भुजं बीजपूरकोरगयुतदक्षिणपाणि नकुलकाहियुतवामपाणि चेति । निर्वाणकलिका १८.२३ ३ त्रि०श०पु०च० ९.३.३६२-६३; मन्त्राधिराजकल्प ३.४७; देवतामूर्तिप्रकरण ७.६२; पार्श्वनाथचरित्र (भावदेव - सूरिप्रणीत) ७.८२७ - २८; रूपमण्डन ६.२० ४ मातुलिंगगदायुक्तौ बिभ्राणो दक्षिणौ करौ । वामी नकुलसर्पाको कूपकः कुन्जराननः ॥ मूर्ध्नि फणिफणच्छत्रो यक्षः पार्श्वोऽसितद्युतिः । पद्मानन्दमहाकाव्यः परिशिष्ट- पार्श्वनाथ ९२-९३ द्रष्टव्य, आचारदिनकर ३४, पृ० १७५ ५ पार्श्वस्य धरणो यक्षः श्यामांगः कूर्मवाहनः । प्रतिष्ठासारसंग्रह ५.६७ ६ ऊर्ध्वद्विहस्तधृतवासुकिरुद्भटाधः Jain Education International सव्यान्यपाणिफणिपाशवरप्रणता । श्री नागराजककुदं धरणोभ्रनीलः कूर्मश्रितो भजतु वासुकिमौलिरिज्याम् || प्रतिष्ठासारोद्धार ३.१५१ द्रष्टव्य, प्रतिष्ठातिलकम् ७.२३, पृ० ३३८ ७ पार्श्वो धनुर्बाण भृण्डि मुद्गरश्च फलं वरः । सर्परूपः श्यामवर्ण: कर्तव्यः शान्तिमिच्छता । अपराजितपृच्छा २२१.५५ ८ भट्टाचार्य, बी० सी० पू०नि०, पृ० ११८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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