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________________ ३२७ यक्ष-यक्षी-प्रतिमाविज्ञान और कुछ के हाथों में फल एवं अन्य सामग्रियां हैं। अम्बिका के शीर्ष भाग की जिन आकृति के पावों में त्रिमंग में खड़ी बलराम एवं कृष्ण की चतुर्भुज मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। स्मरणीय है कि बलराम और कृष्ण नेमिनाथ के चचेरे भाई हैं और अम्बिका नेमिनाथ की यक्षी है। यह मूर्ति इस बात का प्रमाण है कि ल० नवीं शती ई० में अम्बिका नेमिनाथ से सम्बद्ध हुई । तीन सर्पफणों के छत्र से युक्त बलराम के तीन हाथों में पात्र (2), मुसल और हल (पताका सहित) हैं तथा चौथा हाथ जानु पर स्थित है। कृष्ण के करों में अभयमुद्रा, गदा, चक्र एवं शंख हैं। भामण्डल से युक्त अम्बिका के शीर्षभाग में आम्रफल के गुच्छक एवं उड्डीयमान मालाधर आमूर्तित हैं। देवी के दाहिने पार्श्व में ललितमुद्रा में विराजमान गजमुख गणेश की द्विभुज मति उत्कीर्ण है जिसके हाथों में अभयमुद्रा एवं मोदकपात्र हैं । वाम पार्श्व में ललितमुद्रा में आसीन द्विभुज कुबेर की मूर्ति है जिसके हाथों में फल एवं धन का थैला हैं। दसवीं शती ई० को दो द्विभुज मूर्तियां मालादेवी मन्दिर (ग्यारसपुर, म०प्र०) के उत्तरी और दक्षिणी शिखर पर हैं। शोर्षमाग में आम्रफल के गुच्छकों से शोभित सिंहवाहना अम्बिका आम्रलुम्बि एवं पुत्र से र के पाश्वनाथ मन्दिर (१०वीं शती ई०) के दक्षिणी मण्डोवर पर भी अम्बिका की एक द्विभुजा मूति है। त्रिमंग में खडी अम्बिका आनलम्बि एवं बालक से युक्त है। यहां सिंहवाहन नहीं उत्कीर्ण है । शीर्षभाग में आम्रफल के गुच्छक और दाहिने पार्श्व में दूसरा पुत्र उत्कीर्ण है । इस मूर्ति के अतिरिक्त खजुराहो की दसवीं से बारहवीं शती ई० के मध्य की अन्य सभी मूर्तियों में अम्बिका चतुर्भुजा है। उल्लेखनीय है कि खजुराहो में अम्बिका जहां एक ही उदाहरण में द्विभुजा है, वहीं देवगढ की ५० से अधिक मूर्तियों (९वीं-१२वीं शती ई०) में वह द्विभुजा अंकित है । देवगढ़ से चतुर्भजा अम्बिका की केवल तीन ही मूर्तियां मिली हैं।२ तात्पर्य यह कि खजुराहो में अम्बिका का चतुर्भज और देवगढ़ में द्विभुज रूपों में निरूपण लोकप्रिय था । स्मरणीय है कि दिगंबर परम्परा में अम्बिका को द्विभुज बताया गया है। देवगढ़ से प्राप्त ५० से अधिक स्वतन्त्र मूर्तियों (९वीं-१२वीं शती ई०)४ में से तीन उदाहरणों के अतिरिक्त अन्य सभी में अम्बिका द्विभुजा है (चित्र ५१)। अधिकांश उदाहरणों में देवी स्थानक-मुद्रा में और कुछ में ललितमुद्रा में निरूपित है। शीर्ष भाग में लघु जिन आकृति एवं आम्रवृक्ष उत्कीर्ण हैं। अम्बिका के करों में आम्रलुम्बिएवं पुत्र प्रदर्शित हैं। कुछ उदाहरणों में पुत्र गोद में न होकर वाम पार्श्व में खड़ा है। सिंहवाहन सभी उदाहरणों में उत्कीर्ण है। दिगंबर परम्परा के अनुरूप दूसरे पुत्र को दाहिने पाश्व में अंकित किया गया है। परिकर में उड्डीयमान मालाधरों एवं कभीकभी चामरधर सेवकों को भी उत्कीर्ण किया गया है। साहू जैन संग्रहालय, देवगढ़ की एक मूर्ति (१२वीं शती ई०) में अम्बिका के वाहन का सिर सिंह का और शरीर मानव का है। इसी संग्रहालय की एक अन्य मूर्ति (११वीं शती ई.) में यभी के वाम स्कन्ध के ऊपर पांच सर्पफणों से मण्डित सुपावं की खड़गासन मूर्ति बनी है। संग्रहालय की एक अन्य मति में परिकर में अभयमुद्रा, पद्म, चामर एवं कलश से युक्त दो चतुर्भुज देवियों, पांच जिनों एवं चामरधरों की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । वाम पार्श्व में दूसरा पुत्र है। मन्दिर १२ को उत्तरी चहारदीवारी की एक मूर्ति (११वीं शती ई०) में अम्बिका के दाहिने हाथ में आम्रलुम्बि नहीं है वरन् वह पुत्र के मस्तक पर स्थित है । उपर्युक्त मूर्तियों के अध्ययन से स्पष्ट है कि देवगढ़ में द्विभुजा अम्बिका के निरूपण में दिगंबर परम्परा का पालन किया गया है। १ पार्श्वनाथ मन्दिर के शिखर (दक्षिण) पर भी चतुर्भुजा अम्बिका की एक मूर्ति है । २ इसमें मन्दिर १२ की चतुर्भुज मूर्ति भी सम्मिलित है। ३ केवल तान्त्रिक ग्रन्थ में अम्बिका चतुर्भजा है। ४ सर्वाधिक मूर्तियां ग्यारहवीं शती ई० को हैं। ५ साहू जैन संग्रहालय, देवगढ़ की एक मूर्ति (११वीं शती ई०) में यक्षी की दाहिनी भुजा में आम्रलुम्बि के स्थान पर छत्र-पद्म प्रदर्शित है । मन्दिर १२ की उत्तरी चहारदीवारी की मूर्ति में भी आम्रलुम्बि नहीं प्रदर्शित है। ६ मानस्तम्भों की कुछ मूर्तियों में अम्बिका का दूसरा पुत्र नहीं उत्कीर्ण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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