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________________ प्रस्तावना ] टी० एन० रामचन्द्रन ने तिरूपरुत्तिकुणरम (तमिलनाडु) के मन्दिरों पर एक पुस्तक लिखी है । इस पुस्तक में उस स्थल की जैन सामग्री के विस्तृत उल्लेख हैं और साथ ही जैन देवकुल और प्रतिमाविज्ञान के विभिन्न पक्षों की विवेचना भी की गई है । उल्लेखनीय है कि रामचन्द्रन के पूर्व के सभी कार्य किसी स्थल विशेष की जैन मूर्ति सामग्री, स्वतन्त्र जिन मूर्तियों एवं जैन प्रतिमाविज्ञान के किसी पक्ष विशेष के अध्ययन से सम्बन्धित हैं । सर्वप्रथम रामचन्द्रन ने ही समग्र दृष्टि से जैन प्रतिमा विज्ञान पर कार्य किया । इस ग्रन्थ के लेखन में मुख्यतः दक्षिण भारत के ग्रन्थों एवं मूर्ति अवशेषों से सहायता ली गई है | अतः दक्षिण भारत के जैन प्रतिमाविज्ञान के अध्ययन की दृष्टि से इस ग्रन्थ का विशेष महत्व है । ग्रन्थ में जिनों एवं अन्य शलाका-पुरुषों, २४ यक्ष-यक्षियों एवं अन्य देवों के लाक्षणिक स्वरूपों के उल्लेख । लेकिन विद्याओं एवम् जीवन्तस्वामी महावीर की कोई चर्चा नहीं है । रामचन्द्रन की एक अन्य पुस्तक में उत्तर और दक्षिण भारत के कुछ प्रमुख जैन स्थलों की मूर्तियों के उल्लेख हैं । प्रारम्भ में जैन प्रतिमाविज्ञान का संक्षिप्त परिचय भी दिया गया है, जिसमें जैन देवकुल पर हिन्दू देवकुल के प्रभाव की चर्चा से सम्बन्धित अंश विशेष महत्वपूर्ण है । एक लेख में रामचन्द्रन ने मोहनजोदड़ो की मुहरों एवं हड़प्पा की मूर्ति की नग्नता एवं खड़े होने की मुद्रा (कायोत्सर्ग के समान) के आधार पर सैन्धव सभ्यता में जैन धर्म एवं जिन मूर्ति की विद्यमानता की सम्भावना व्यक्त की है । उन्होंने सैन्धव सभ्यता में प्रथम जिन ऋषभनाथ की विद्यमानता स्वीकार की है, जो ऐतिहासिक प्रमाणों के अभाव में स्वीकार्य नहीं है । • डब्ल्यू ० नार्मन ब्राउन ने जैन कल्पसूत्र के चित्रों पर एक पुस्तक लिखी है ।" के० पी० जैन और त्रिवेणी प्रसाद जिन प्रतिमाविज्ञान पर संक्षिप्त किन्तु महत्वपूर्ण लेख लिखे हैं । इनमें जिन मूर्तियों से सम्बन्धित सभी महत्वपूर्ण पक्षों, यथा मुद्राओं, अष्ट-प्रातिहार्यो, श्रीवत्स आदि की साहित्यिक सामग्री के आधार पर विवेचना की गई है। के० पी० जायसवाल" एवं ए० बनर्जी - शास्त्री' ने लोहानीपुर की जिन मूर्ति पर लेख लिखे हैं । इन लोगों ने विभिन्न प्रमाणों के आधार पर लोहानीपुर जिन मूर्ति का समय मौर्यकाल माना है । आज सभी विद्वान् इसे प्राचीनतम जिन मूर्ति मानते हैं । बी० भट्टाचार्य ने जैन प्रतिमाविज्ञान पर एक संक्षिप्त लेख लिखा है, जिसमें जैन देवकुल की विभिन्न देवियों की सूची विशेष महत्व की है। " टी० एन० रामचन्द्रन के बाद जैन प्रतिमाविज्ञान पर दूसरा महत्वपूर्ण कार्य बी० सी० भट्टाचार्य का है, जिन्होंने जैन प्रतिमाविज्ञान पर एक पुस्तक लिखी है ।" भट्टाचार्य ने ग्रन्थ में केवल उत्तर भारत की स्रोत सामग्री का उपयोग १ रामचन्द्रन, टी० एन, तिरूपरुत्तिकुणरम ऐण्ड इट्स टेम्पल्स, बु०म०ग०म्यु०, न्यू० सि०, खं० १, भाग ३, मद्रास, १९३४ २ रामचन्द्रन, टी० एन०, जैन मान्युमेण्ट्स एण्ड प्लेसेज ऑव फर्स्ट क्लास इम्पार्टेन्स, कलकत्ता, १९४४ ३ रामचन्द्रन, टी० एन०, 'हड़प्पा ऐण्ड जैनिजम', ( हिन्दी अनुवाद), अनेकान्त, वर्ष १४ जनवरी १९५७, पृ० १५७-६१ ४ ब्राउन, डब्ल्यू० एन, ए डेस्क्रिप्टिव ऐण्ड इलस्ट्रेटेड केटलॉग ऑव मिनियेचर पेण्टिग्स ऑव दि जैन कल्पसूत्र, वाशिंगटन, १९३४ ५ जैन, कामताप्रसाद, 'जैन मूर्तियाँ', जैन एण्टि०, खं० २, अं० १, पृ० ६-१७ ६ प्रसाद, त्रिवेणी, 'जैन प्रतिमा- विधान', जैन एण्टि ०, खं० ४, अं० १, पृ० १६-२३ ७ जायसवाल, के० पी०, 'जैन इमेज ऑव मीर्य पिरियड', ज०बि० उ०रि०सो०, खं० २३, भाग १, पृ० १३०-३२ ८ बनर्जी - शास्त्री, ए०, 'मौर्यन स्कल्पचर्स फ्राम लोहानीपुर, पटना', ज०बि०उ०रि०सी०, खं० २६, भाग २, पृ० १२०-२४ ९ भट्टाचार्य, बी०, 'जैन आइकनोग्राफी', जैनाचार्य श्रीआत्मानन्द जन्म शताब्दी स्मारक ग्रन्थ, बम्बई, १९३६, पृ० ११४-२१ १० भट्टाचार्य, बी० सी०, दि जैन आइकानोग्राफी, लाहौर, १९३९ Jain Education International For Private & Personal Use Only ܀ www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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