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[ जैन प्रतिमाविज्ञान किया है । लेखक ने २४ जिनों एवं यक्ष-यक्षियों के साथ ही १६ विद्याओं, सरस्वती, अष्ट-दिक्पालों, नवग्रहों एवं जैन देवकुल के अन्य देवों के प्रतिमा लक्षणों की विस्तृत चर्चा की है । सर्वप्रथम उन्होंने ही उत्तर भारत के कई महत्वपूर्ण श्वेताम्बर एवं दिगम्बर लाक्षणिक ग्रन्थों तथा मथुरा की जैन मूर्तियों का समुचित उपयोग किया है । किन्तु पुस्तक में मथुरा के अतिरिक्त अन्य स्थलों से प्राप्त पुरातात्विक सामग्री का उपयोग नगण्य है, अतः इस पुरातात्विक साक्ष्य के तुलनात्मक अध्ययन का भी अभाव है । भट्टाचार्य ने जैनेतर एवं प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों का भी उपयोग नही किया है । पुस्तक में जैन धर्म के प्रचलित प्रतीकों, समवसरण, बाहुबली, भरत चक्रवर्ती, ब्रह्मशान्ति यक्ष, जीवन्तस्वामी महावीर एवं कुछ अन्य विषयों की चर्चा ही नहीं है । गुप्त युग में यक्ष-यक्षियों के चित्रण की नियमितता, यक्षियों के स्वरूप निर्धारण के बाद विद्याओं का स्वरूप निर्धारण, कल्पसूत्र में जिन - लांछनों का उल्लेख एवं मथुरा की गुप्तकालीन जन मूर्तियों में जिनों के लांछनों का प्रदर्शन - ये भट्टाचार्य की कुछ ऐसी स्थापनाएँ हैं जो साहित्यिक और पुरातात्विक प्रमाणों के परिप्रेक्ष्य में स्वीकार्य नहीं हैं । जैन प्रतिमाविज्ञान पर अब तक का सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ होने के बाद भी उपर्युक्त कारणों से इसकी उपयोगिता सीमित है ।
एच० डी० संकलिया ने जैन प्रतिमाविज्ञान एवं सम्बन्धित पक्षों पर कई लेख लिखे हैं । इनमें 'जैन आइकानोग्राफी' शीर्षक लेख विशेष महत्वपूर्ण है । इसमें प्रारम्भ में जैन देवकुल के सदस्यों का प्रतिमा निरूपण किया गया है, तदुपरान्त बम्बई के सेण्ट जेवियर संग्रहालय की जैन धातु मूर्तियों का विवरण दिया गया है । संकलिया के अन्य महत्वपूर्ण लेख जैन यक्ष-यक्षियों, देवगढ़ के जैन अवशेषों एवं गुजरात-काठियावाड़ की प्रारम्भिक जैन मूर्तियों से सम्बन्धित हैं । इनमें विभिन्न स्थलों की जैन मूर्ति सामग्री का उल्लेख है । काठियावाड़ की धांक गुफा को दिगम्बर जैन मूर्तियाँ यक्ष-यक्षी युगलों युक्त प्रारम्भिक जिन मूर्तियाँ हैं ।
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जैन प्रतिमाविज्ञान पर सबसे अधिक महत्वपूर्ण कार्य यू० पी० शाह ने किया है । पिछले ३० वर्षों से अधिक समय से वे मुख्यतः जैन प्रतिमाविज्ञान पर ही कार्य कर रहे हैं। शाह ने प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों और विभिन्न पुरातात्विक स्थलों की सामग्री एवं उत्तर और दक्षिण भारत के जैन ग्रन्थों और शिल्प सामग्री का समुचित उपयोग किया है। अब तक का उनका अध्ययन उनकी दो पुस्तकों एवं ३० से अधिक लेखों में प्रकाशित हैं। उनकी पहली पुस्तक 'स्टडीज इन जैन आर्ट' में जैन कला में प्रचलित प्रमुख प्रतीकों, यथा अष्टमांगलिक चिह्नों, समवसरण, मांगलिक स्वप्नों, स्तूप, चैत्यवृक्ष, आयागपटों, के विकास की मीमांसा की गई है।' साथ ही प्रारम्भ में उत्तर भारत के जैन मूर्ति अवशेषों का संक्षिप्त सर्वेक्षण भी प्रस्तुत किया गया है । दूसरी पुस्तक 'अकोटा ब्रोन्जेज' में उन्होंने अकोटा से प्राप्त जैन कांस्य मूर्तियों (लगभग ५वीं से ११वीं शती ई०) का विवरण दिया है ।" अकोटा की मूर्तियाँ प्रारम्भिकतम श्वेताम्बर जैन मूर्तियाँ हैं । जीवन्तस्वामी महावीर एवं यक्षयक्षी से युक्त जिन मूर्ति के प्रारम्भिकतम उदाहरण मी अकोटा से ही मिले हैं। जैन प्रतिमाविज्ञान की दृष्टि से इन मूर्तियों का विशेष महत्व है ।
१ संकलिया, एच० डी०, 'जैन आइकानोग्राफी', न्यू इण्डियन एन्टिक्वेरी, खं० २ १९३९-४०, पृ० ४९७-५२० २ संकलिया, एच० डी०, 'जैन यक्षज ऐण्ड यक्षिणीज', बु०ड०का०रि०ई०, खं० १, अं० २-४, पृ० १५७-६८; 'जैन मान्युमेण्ट्स फ्राम देवगढ़', ज०ई०सी०ओ०आ०, खं० ९, १९४१, पृ० ९७ - १०४, 'दि, अलिएस्ट जैन स्कल्पचर्स इन काठियावाड़', ज०रा०ए०सो० जुलाई १९३८, पृ० ४२६-३०
३ जैन प्रतिमाविज्ञान पर शाह का शोध प्रबन्ध भी है, किन्तु अप्रकाशित होने के कारण हम उससे लाभ नहीं उठा सके ।
४ शाह, यू० पी०, स्टडीज इन जैन आर्ट, बनारस, १९५५
५ शाह, यू०पी०, अकोटा ब्रोन्जेज, बम्बई, १९५९
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