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________________ यक्ष यक्षी - प्रतिमाविज्ञान ] १५५ स्थानक - मुद्रा में खड़ा भी दिखाया गया है । ल० छठीं शती ई० में जिन मूर्तियों में' और ल० नवीं शती ई० में स्वतन्त्र मूर्तियों के रूप में यक्ष-यक्षियों का उत्कीर्णन प्रारम्भ हुआ । स्वतन्त्र मूर्तियों में यक्ष और यक्षियों के मस्तकों पर छोटी जिन मूर्तियां उत्कीर्ण रहती हैं, जो उन्हें जिनों और साथ ही जैन देवकुल से सम्बन्धित करती हैं। लांछन युक्त छोटी जिन मूर्तियां भी उनके पहचान में सहायक हुई हैं । दिगंबर परम्परा की अधिकांश यक्षियों के नाम एवं कुछ सीमा तक लाक्षणिक विशेषताएं श्वेतांबर परम्परा की पूर्ववर्ती महाविद्याओं से ग्रहण की गईं । इसी कारण यक्षियों के नामों एवं लाक्षणिक विशेषताओं के सन्दर्भ में श्वेतांबर और दिगंबर परम्पराओं में पूर्ण भिन्नता दृष्टिगत होती है । पर यक्षों के सन्दर्भ में ऐसी भिन्नता नहीं प्राप्त होती । २४ यक्षों एवं २४ यक्षियों की सूची में अधिकांश के नाम एवं उनकी लाक्षणिक विशेषताएं हिन्दू और कुछ उदाहरणों में बौद्ध देवकुल के देवों से प्रभावित हैं । जैन धर्म में हिन्दू देवकुल के विष्णु, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र, स्कन्द कार्तिकेय, काली, गौरी, सरस्वती, चामुण्डा और बौद्ध देवकुल की तारा, वज्रशृंखला, वज्रतारा एवं वज्रांकुशी के नामों और लाक्षणिक विशेषताओं को ग्रहण किया गया। जैन देवकुल पर ब्राह्मण और बौद्ध धर्मों के देवों का प्रभाव दो प्रकार का है । प्रथम, जैनों ने इतर धर्मों के देवों के केवल नाम ग्रहण किये और स्वयं उनकी स्वतन्त्र लाक्षणिक विशेषताएं निर्धारित कीं । गरुड, वरुण, कुमार यक्षों और गौरी, काली, महाकाली, अम्बिका एवं पद्मावती यक्षियों के सन्दर्भ में प्राप्त होनेवाला प्रभाव इसी कोटि का है । द्वितीय, जैनों ने देवताओं के एक वर्ग की लाक्षणिक विशेषताएं इतर धमों के देवों से ग्रहण कीं । कभी-कभी लाक्षणिक विशेषताओं के साथ ही साथ इन देवों के नाम भी हिन्दू और बौद्ध देवों से प्रभावित हैं । इस वर्ग में आनेवाले यक्ष-यक्षियों में ब्रह्मा, ईश्वर, गोमुख, भृकुटि, षण्मुख, यक्षेन्द्र, पाताल, धरणेन्द्र एवं कुबेर यक्ष और चक्रेश्वरी, विजया, निर्वाणी, तारा एवं वज्रश्रृंखला यक्षियां प्रमुख हैं । हिन्दू देवकुल से प्रभावित यक्ष-यक्षी युगल तीन भागों में विभाज्य । पहली कोटि में ऐसे यक्ष-यक्षी युगल आते हैं जिनके मूल-देवता हिन्दू देवकुल में आपस में किसी प्रकार सम्बन्धित नहीं हैं । जैन यक्ष-यक्षी युगलों में अधिकांश इसी वर्ग के हैं । दूसरी कोटि में ऐसे यक्ष-यक्षी युगल हैं जो पूर्वरूप में हिन्दू देवकुल में भी परस्पर सम्बन्धित हैं, जैसे श्रेयांशनाथ के यक्ष-यक्षी ईश्वर एवं गौरी । तीसरी कोटि में ऐसे युगल हैं जिनमें यक्ष एक और यक्षी दूसरे स्वतन्त्र सम्प्रदाय के देवता से प्रभावित हैं । ऋषभनाथ के गोमुख यक्ष एवं चक्रेश्वरी यक्षी इसी कोटि के हैं जो क्रमशः शैव एवं वैष्णव धर्मों के प्रतिनिधि देव हैं । आगम साहित्य, कल्पसूत्र एवं पउमचरिय जैसे प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों में २४ यक्ष-यक्षियों में से किसी का उल्लेख नहीं है। छठीं -सातवीं शती ई० के टीका, निर्युक्ति एवं चूर्णि ग्रन्थों में भी इनका अनुल्लेख है । जैन देवकुल का प्रारम्भिकतम यक्ष-यक्षी युगल सर्वानुभूति ( यक्षेश्वर ) * एवं अम्बिका है, जिसे छठीं सातवीं शती ई० में निरूपित किया गया । " सर्वानुभू १ शाह, यु० पी०, अकोटा ब्रोन्जेज़, बम्बई, १९५९, पृ० २८-२९ २ छठीं सातवीं शती ई० की एक स्वतन्त्र अम्बिका मूर्ति अकोटा (गुजरात) से मिली है - शाह, यू०पी०, पु०नि०, पृ० ३०-३१, फलक १४ ३ शाह, यू० पी०, 'इण्ट्रोडक्शन ऑव शासनदेवताज इन जैन वरशिप', प्रो० ट्रां० ओ० कां०, २०वां अधिवेशन, भुवनेश्वर, अक्तूबर १९५९, पृ०१५१-५२, मट्टाचार्य, बेनायतोश, दि इण्डियन बुद्धिस्ट आइकनोग्राफी, कलकत्ता, १९६८, पृ० ५६, २३५, २४०, २४२, २९७ बनर्जी, जे० एन०, दि डीवलपमेन्ट ऑव हिन्दू आइकनोग्राफी, कलकत्ता, १९५६, पृ० ५६१-६३ ४ प्रारम्भ में यक्ष का नाम पूरी तरह निश्चित न हो पाने के कारण सर्वानुभूति को मातंग और गोमेध भी कहा गया । ५ शाह, यू०पी० पू०नि०, पृ० १४५-४६; शाह, यू०पी०, 'यक्षज वरशिप इन अर्ली जैन लिट्रेचर', ज०ओ० इं० खं० ३, अं० १, पृ० ७१; शाह, यू०पी०, अकोटा ब्रोन्जेज, पृ० २८-३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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