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षष्ठ अध्याय यक्ष यक्षी - प्रतिमाविज्ञान
सामान्य विकास
यक्ष एवं यक्षियां जिन प्रतिमाओं के साथ संयुक्त रूप से अंकित किये जानेवाले देवों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं । प्रस्तुत अध्याय में यक्ष एवं यक्षियों के प्रतिमाविज्ञान के विकास का अध्ययन किया जायगा । प्रारम्भ में यक्ष और यक्षियों के प्रतिमाविज्ञान के सामान्य विकास की संक्षिप्त रूपरेखा दी गई है । तत्पश्चात् जिनों के क्रम से प्रत्येक यक्ष-यक्षी युगल की मूर्तियों का प्रतिमाविज्ञानपरक अध्ययन किया गया है। यह विकास पहले साहित्यिक साक्ष्य के आधार पर और बाद में पुरातात्विक साक्ष्य के आधार पर निरूपित है । अन्त में दोनों का तुलनात्मक एवं समन्वयात्मक अध्ययन है । संक्षेप में दक्षिण भारत के जैन यक्ष एवं यक्षियों से इनके तुलनात्मक अध्ययन का भी प्रयास किया गया ।
साहित्यिक साक्ष्य
जैन ग्रन्थों में यक्ष एवं यक्षियों का उल्लेख जिनों के शासन और उपासक देवों के रूप में हुआ है ।" प्रत्येक जिन के यक्ष यक्षी युगल उनके चतुर्विध संघ के शासक एवं रक्षक देव हैं । जैन ग्रन्थों के अनुसार समवसरण में जिनों के धर्मोपदेश के बाद इन्द्र ने प्रत्येक जिन के साथ सेवक- देवों के रूप में एक यक्ष और एक यक्षी को नियुक्त किया । शासनदेवताओं के रूप में सर्वदा जिनों के समीप रहने के कारण ही जैन देवकुल में यक्ष और यक्षियों को जिनों के बाद सर्वाधिक प्रतिष्ठा मिली । हरिवंशपुराण में उल्लेख है कि जिन शासन के भक्त देवों (शासनदेवताओं) के प्रभाव से हित - ( शुभ - ) कार्यों at fare शक्तियां ( ग्रह, नाग, भूत, पिशाच और राक्षस) शान्त हो जाती हैं ।"
जैन परम्परा के अनुसार यक्ष एवं यक्षी जिन मूर्तियों के सिंहासन या सामान्य पीठिका के क्रमशः दाहिने और बायें छोरों पर अंकित होने चाहिये । सामान्यतः ये ललितमुद्रा में निरूपित हैं, पर कभी-कभी इन्हें ध्यानमुद्रा में आसीन या
१ प्रशासनाः शासनदेवताश्च या जिनांश्चतुर्विंशतिमाश्रिताः सदा ।
हिताः सतामप्रतिचक्रयान्विताः प्रयाचिताः सन्निहिता भवन्तु ताः ॥ हरिवंशपुराण ६६.४३-४४ यक्षाभक्तिस्तीर्थं कृतामिमे । प्रवचनसारोद्धार (भट्टाचार्य, बी०सी०, दि जैन आइकानोग्राफी, लाहौर, १९३९, पृ० ९२)
२ ओं नमो गोमुखयक्षाय श्री युगांगे जिनशासनरक्षाकार काय ।
आचारदिनकर
या पति शासन जैनं सद्यः प्रत्यूहनाशिनी । साभिप्रेतसमृद्ध्यर्थं भूयात् शासनदेवता ।
प्रतिष्ठाकल्प, पृ० १३ (भट्टाचार्य, बी० सी० पू०नि०, पृ० ९२-९३ )
३ भट्टाचार्य, बी० सी० पू०नि०, पृ० ९३
४ हरिवंशपुराण ६६.४३ - ४४; तिलोयपण्णत्ति ४.९३४-३९
६ यक्षं च दक्षिणपार्श्वे वामे शासनदेवतां । प्रतिष्ठासारसंग्रह ५.१२ प्रतिष्ठासारोद्धार १.७७ । परम्परा के विपरीत कभी-कभी पीठिका के मध्य के चरणों के समीप भो यक्ष और यक्षियों की मूर्तियां उत्कीर्ण हुईं। कुछ यक्षी दाहिनी ओर भी निरूपित हैं। ऐसी मूर्तियां मुख्यतः दिगंबर स्थलों से मिली हैं ।
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५ हरिवंशपुराण ६६.४५
धर्मचक्र के दोनों ओर या जिनों के उदाहरणों में यक्ष बायीं ओर और (देवगढ़, राज्य संग्रहालय, लखनऊ )
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