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________________ जिन-प्रतिमाविन ] १४१ महावार के समक्ष भयंकर अट्टहास किया। किन्तु महावीर तनिक भी विचलित नहीं हुए। तब यक्ष ने हाथी का रूप धारण कर महावीर को दांतों और पैरों से पीड़ा पहुंचाई। पर महावीर फिर भी अविचलित रहे । तब उसने पिशाच का रूप धारण कर तीक्ष्ण नखों एवं दांतों से महावीर के शरीर को नोचा, सर्प बनकर उनका दंश किया और उनके शरीर से लिपट गया। इतना कुछ होने पर भी महावीर का ध्यान नहीं टूटा । शूलपाणि ने महावीर के शरीर में सात स्थानों (नेत्रों, कानों, नासिका, सिर, दांतों, नखों एवं पीठ) पर भयंकर पीड़ा पहुंचाई। पर महावीर शान्तभाव से सब सहते रहे। अन्त में यक्ष ने अपनी पराजय स्वीकार की और महावीर के चरणों पर गिर पड़ा। बाद में उसने वह स्थान भी छोड़ दिया । ___तपःसाधना के दूसरे वर्ष में महावीर को चण्डकौशिक नाम का दृष्टि-विष वाला भयंकर सपं मिला जिसने ध्यानस्थ महावीर के पैर और शरीर पर जहरीला द्रष्टाघात किया। पर महावीर उससे प्रभावित नहीं हए ।२ साधना के पांचवें वर्ष में महावीर लाढ़ देश में आये, जो अनार्य क्षेत्र था। यहां के लोगों ने महावीर की तपस्या में भयंकर उपसर्ग उपस्थित किये । श्वान दूर से ही महावीर को काटने दौड़ते थे। अनार्य लोगों ने महावीर पर दण्ड, मुष्टि, पत्थर एवं शूल आदि में प्रहार किये। साधना के ११वें वर्ष में इन्द्र ने महावीर की कठिन साधना की प्रशंसा की। पर इन्द्र की बातों पर अविश्वास करते हुए संगम देव ने महावीर की स्वयं परीक्षा लेने का निश्चय किया। संगम देव ने ध्यान निमग्न महावीर को विभिन्न उपसर्गों द्वारा विचलित करने का प्रयास किया। उसने एक ही रात में २० उपसर्ग उपस्थित किये । उसने प्रलयकारी धल की वर्षा, वृश्चिक, नकुल, सर्प, चींटियों, मूषक, गज, पिशाच, सिंह और चाण्डाल आदि के उपसर्गों द्वारा महावीर को तरह-तरह की वेदना पहुंचाई। संगमदेव ने महावीर पर कालचक्र भी चलाया, जिसके प्रभाव से महावीर के शरीर का आधा निचला भाग भूमि में धंस गया। उसने एक अप्सरा को महावीर के समक्ष प्रस्तुत किया और स्वयं सिद्धार्थ एवं त्रिशला का रूप धारण कर करुण विलाप भी किया। पर महावीर इन उपसर्गों से तनिक भी विचलित नहीं हुए । अन्त में संगम देव ने अपनी पराजय स्वीकार करते हुए महावीर से क्षमा मांगी।" ____ दक्षिण की ओर शूलपाणि यक्ष की मूर्ति है, जिसकी दोनों भुजाएं ऊपर उठी हैं। शूलपाणि के वक्षःस्थल की सभी हड़ियां दीख रही हैं। समीप ही वृश्चिक, सर्प, कपि, नकुल, गज और सिंह की आकृतियां उत्कीर्ण हैं। आगे महावीर की कायोत्सर्ग मूर्ति है। नीचे 'महावीर उपसर्ग' लिखा है। यह शूलपाणि यक्ष के उपसर्गों का चित्रण है। महावीरमति के नीचे भी वषम, गज और सिंह की मूर्तियां हैं। साथ ही बाण और चक्र जैसे शस्त्र भी अंकित हैं। नीचे 'महावीर उपसर्ग' उत्कीर्ण है। महावीर के दाहिने पार्श्व में एक सर्प को दंश करते हुए दिखाया गया है । ऊपर आक्रमण की मुद्रा में एक आकति चित्रित है। समीप ही सर्प और खड्ग से युक्त एक आकृति को कायोत्सर्ग में खड़े महावीर पर प्रहार की मुद्रा में दिखाया गया है। आगे महावीर की एक दूसरी कायोत्सर्ग मूर्ति उत्कीर्ण है। एक वृषभ महावीर पर आक्रमण की मुद्रा में दिखाया गया है। ये सभी संगमदेव के उपसर्ग हैं। उपसों के बाद महावीर के चन्दनबाला से भिक्षाग्रहण करने का दृश्य है। ज्ञातव्य है कि चन्दनबाला महावीर की प्रथम शिष्या एवं श्रमणी-संघ की प्रवर्तिनी थी । चन्दनबाला चम्पा नगरी के शासक दधिवाहन की पुत्री थी और उसका प्रारम्भिक नाम वसूमति था। एक बार कौशाम्बी के राजा ने दधिवाहन पर आक्रमण कर उसे पराजित कर दिया और उसकी पत्री वसमती को कौशाम्बी ले आया, जहां उसने वसुमती को धनावह श्रेष्ठी के हाथों बेच दिया । धनावह और उसकी पत्नी मला वसूमती को अपनी पुत्री के समान मानते थे। दोनों ने वसुमती का नया नाम चन्दना रखा । चन्दना का सौन्दर्य अनपम था। उसकी अपार रूपराशि को देखकर मूला के हृदय का स्त्री दौर्बल्य जाग उठा और उसने यह सोचना १ त्रिश०पु०च० १०.३.१११-४६ २ त्रि०२०पु०च०१०.३.२२५-८० ३ त्रिश०पु०च० १०.३.५५४-६६ ४ त्रिश०पु०च० १०.४.१८४-२८१ ५ चतुर्विशति जिनचरित्र, जिनचरित्र परिशिष्ट, २२२-३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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