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________________ १४० [ जैन प्रतिमाविज्ञान में गरम शीशा डलवाकर उसे दण्डित किया। अपने इसी अमानवीय कृत्य के कारण १९ वें भव में त्रिपृष्ठ नरक में उत्पन्न हुआ । बाईसवे भव में नयसार का जीव प्रियमित्र चक्रवर्ती हुआ । २६ वे भव में नयसार का जीव ब्राह्मणी देवानन्दा के गर्भ में उत्पन्न हआ। देवानन्दा के गर्भ से त्रिशला के गर्भ में स्थानान्तरण को नयसार का २७ वां भव माना गया।' दूसरे आयत में उत्तर की ओर नयसार और तीन जैन मुनियों की आकृतियां खड़ी हैं। मुनियों के एक हाथ में मुखपट्टिका है और दूसरे से अभयमुद्रा प्रदर्शित है। समोप ही मुनि द्वारा नयसार को उपदेश दिये जाने का दृश्य है। आगे नयसार के जीव को दूसरे भव में स्वर्ग में और तीसरे भव में मारीचि के रूप में दिखाया गया है। समीप ही विश्वभूति की मूर्ति (१६ वां भव) है। विश्वभूति एक वृक्ष पर प्रहार कर रहे हैं। नीचे 'विश्वभूति केवली' उत्कीर्ण है । जैन परम्परा में उल्लेख है कि किसी बात पर अप्रसन्न होकर विश्वभूति ने सेव के एक वृक्ष पर मुष्टिका से प्रहार किया था जिसके फलस्वरूप वृक्ष के सभी सेव नीचे गिर पड़े थे। दक्षिण की ओर त्रिपृष्ठ को एक सिंह से युद्धरत दिखाया गया है। नीचे 'त्रिपृष्ठ वासुदेव' उत्कीर्ण है । आगे त्रिपृष्ठ के जीव को नरक में विभिन्न प्रकार की यातनाएं सहते हुए दिखाया गया है। नीचे 'त्रिपृष्ठ नरकवास' उत्कीर्ण है। समीप ही एक सिंह (२० वां भव) एवं नरक की यातना (२१ वां भव) के दृश्य हैं । नीचे 'अग्नि नरकवास' उत्कीर्ण है। आगे एक श्मश्रुयुक्त आकृति बनी है, जिसके समीप सर्प, मृग एवं शूकर आदि पशु चित्रित हैं। मध्य के आयत में (उत्तर की ओर) प्रियमित्र चक्रवर्ती (२२ वां भव), नन्दन (२४ वां भव) एवं देवता (२५ वां भव) की मूर्तियां हैं। बाहरी आयत में (पश्चिम की ओर) महावीर के जन्म का दृश्य उत्कीर्ण है। दाहिने छोर पर त्रिशला एक शय्या पर लेटी हैं। समीप ही वार्तालाप की मुद्रा में सिद्धार्थ एवं त्रिशला की आकृतियां हैं। दक्षिण की ओर त्रिशला की शय्या पर लेटी एक अन्य आकृति एवं १४ मांगलिक स्वप्न हैं। आगे दो सेविकाओं से सेवित त्रिशला नवजात शिश के साथ लेटी हैं। त्रिशला के समीप नमस्कार-मुद्रा में नैगमेषी की मूर्ति खड़ी है। आगे वार्तालाप की मुद्रा में सिद्धार्थ एवं त्रिशला की आकृतियां हैं। समीप ही सात अन्य आकृतियां उत्कीर्ण हैं जो सम्भवतः सिद्धार्थ की अधीनता स्वीकार करनेवाले शासकों की मूर्तियां हैं। पूर्व की ओर (मध्य में) नैगमेषी द्वारा शिशु (महावीर) को अभिषेक के लिए मेरु पर्वत पर इन्द्र के पास ले जाने का दृश्य अंकित है। उत्तर की ओर महावीर के जन्माभिषेक का दृश्य है। आगे महावीर के विवाह का दृश्य है। विवाह-वेदिका के दोनों ओर महावीर और यशोदा की स्थानक मूर्तियां हैं। विवाह-वेदिका पर स्वयं ब्रह्मा उपस्थित हैं। समीप ही महावीर एक साधु को कुछ भिक्षा दे रहे हैं। पश्चिम की ओर महावीर और तीन मुनियों की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। दूसरे आयत में (पश्चिम की ओर) महावीर की दीक्षा का दृश्य है। महावीर अपने बायें हाथ से केशों का लुंचन कर रहे हैं। समीप ही खड्ग, मुकुट, हार, कर्णफूल आदि चित्रित हैं जिनका महावीर ने परित्याग किया था। अगले दृश्य में महावीर मुखपट्टिका से युक्त एक वृद्ध को दान दे रहे हैं। नीचे 'महावीर' और 'देवदूष्य ब्राह्मण' लिखा है। जैन परम्परा में उल्लेख है कि दीक्षा के बाद मार्ग में महावीर को एक वृद्ध ब्राह्मण मिला जो महावीर से कुछ दान प्राप्त करना चाहता था। दीक्षा के पूर्व महावोर द्वारा मुक्त हस्त से दिये गये दान के समय यह ब्राह्मण उपस्थित नहीं हो सका था। महावीर ने वृद्ध ब्राह्मण को निराश नहीं किया और कन्धे पर रखे वस्त्र का आधा भाग फाड़कर दे दिया। आगे विभिन्न स्थानों पर महावीर की तपस्या और तपस्या में उपस्थित किये गये उपसर्गों के चित्रण हैं। दृश्य में महावीर शलपाणि यक्ष के आयतन में बैठे हैं। जैन परम्परा में उल्लेख है कि महावीर सन्ध्या समय अस्थिग्राम पहंचे और नगर के बाहर शूलपाणि यक्ष के आयतन में ही रुक गये। लोगों ने महावीर को वहां न रुकने की सलाह दी पर महावीर ने परीषह सहने और यक्ष को प्रतिबोधित करने का निश्चय कर लिया था। रात्रि में यक्ष ने प्रकट होकर ध्यानस्थ । १ त्रिश.पु०च० १०.१.१-२८४; हस्तीमल, पू०नि०, पृ० ३३६-३९ २ हस्तीमल, पू०नि०, पृ० ३६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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