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________________ १२९ जिन-प्रतिमाविज्ञान ] केवल बटेश्वर (आगरा) की ग्यारहवीं शती ई० की एक खड्गासन मूर्ति (जे ७९४) में ही उत्कीर्ण हैं। इसमें यक्ष-यक्षी पांच सर्पफणों की छत्रावली से युक्त हैं। पद्मावती सिंहासन के मध्य में और धरणेन्द्र बायें छोर पर उत्कीर्ण हैं। यक्ष के ऊपर पद्म और वरद-(या अभय-) मुद्रा प्रदर्शित करनेवाली दो देव आकृतियां भी चित्रित हैं । अन्य तीन उदाहरणों में यक्षयक्षी सामान्य लक्षणों वाले हैं। ९७९ ई० की एक मूर्ति के अतिरिक्त अन्य सभी में प्रातिहायों एवं सहायक देवों की मतियां उत्कीर्ण हैं। राजघाट (वाराणसी) की आठवीं शती ई० की एक कायोत्सर्ग मूर्ति (४८.१८२) के परिकर में दो छोटी जिन मूर्तियां और मलनायक के पाश्वों में सर्पफणों की छत्रावली वाले पुरुष-स्त्री सेवक उत्कीर्ण हैं। वाम पार्श्व की स्त्री आकति की दाहिनी भुजा में लम्बे दण्डवाला छत्र है। छत्र मूलनायक के मस्तक के ऊपर प्रदर्शित है । फलतः त्रिछत्र नहीं प्रदर्शित हैं। उन सभी मतियों में जिनमें पार्श्व के सिर के ऊपर छत्र सेविका द्वार। धारित हैं, त्रिछत्र नहीं प्रदर्शित हैं। ल. नवीं शती ई० की एक ध्यानस्थ मूर्ति (जी ३१०) में मूलनायक के पावों में तीन सर्पफणों के छत्रों वाली पुरुष-स्त्री सेवक आकृतियां निरूपित हैं । सहेठ-महेठ की एक ध्यानस्थ मूर्ति (जे८५९, ११वीं शतीई०) में पार्श्व के शरीर के दोनों ओर सर्प की कण्डलियां और परिकर में चार जिन मूर्तियां बनी हैं । महोबा (हमीरपुर) की कायोत्सर्ग मूर्ति (जे ८४६. १२वीं ई०) में सामान्य चामरधरों के अतिरिक्त दाहिनी ओर एक और चामरधर की मूर्ति है, जो आकार में पार्श्वनाथ की मति के समान है। यह धरणेन्द्र यक्ष की मूर्ति है जिसे पार्श्व के चामरधर के रूप में निरूपित कर यहां विशेष प्रतिमा की गई है। ११९६ ई० की एक कायोत्सर्ग मूर्ति (जी २२३) में पीठिका पर सर्प लांछन उत्कीर्ण है । इसमें पाव के स्कन्धों पर जटाएं भी प्रदर्शित हैं। देवगढ़ में नवीं से ग्यारहवीं शती ई० के मध्य की ३० मूर्तियां हैं। २३ उदाहरणों में पार्श्व कायोत्सर्ग में खडे हैं । नवीं-दसवीं शती ई० की कई विशाल मूर्तियों में पार्श्व साधारण पीठिका पर खड़े हैं। ऐसी अधिकांश मूर्तियां मन्दिर १२ की चहारदीवारी पर हैं। तयों में मलनायक के दोनों ओर सर्पफणों की छत्रावली वाली या बिना सर्पफणों वाली स्त्री-पुरुष चामरधर मूर्तियां उत्कोर्ण हैं। कुछ उदाहरणों में पुरुष की भुजा में चामर और स्त्री की भूजा में लम्बा छत्र प्रदर्शित है। इन विशाल मूर्तियों में भामण्डल एवं उड्डीयमान मालाधरों के अतिरिक्त अन्य कोई प्रातिहार्य या सहायक आकृति नहीं उत्कीर्ण है। देवगढ़ की सभी मूतियों में सर्प की कुण्डलियां पाश्र्व के घुटनों या चरणों तक प्रसारित हैं। कुछ उदाहरणों में पार्श्व सर्प की कुण्डलियों पर ही विराजमान भी हैं। पाव के साथ लांछन केवल एक मूर्ति (मन्दिर १२ की पश्चिमी चहारदीवारी. ११वीं शती ई०) में उत्कीर्ण है। कायोत्सर्ग में खड़े पावं की पीठिका पर लांछन के रूप में कुक्कूट-सर्प बना है (चित्र ३१) । मन्दिर ६ की दसवीं शती ई० की एक खड्गासन मूर्ति में पाव के दोनों ओर तीन सपंफणों वाली दो नाग आकृतियां बनी हैं (चित्र ३२)। मन्दिर ६ और ९ की दो मूर्तियों में पाश्वं के कन्धों पर जटाएं भी प्रदर्शित हैं। दसवीं-ग्यारहवीं शती ई० की छह मूर्तियों में सामान्य लक्षणों वाले द्विभुज यक्ष-यक्षी निरूपित हैं। तीन उदाहरणों में इनके शीर्ष भाग में सर्पफणों के छत्र भी प्रदर्शित हैं।' पारम्परिक यक्ष-यक्षी केवल एक ही मति (११वीं शती ई. में निरूपित हैं। यह मति मन्दिर १२ के समीप अरक्षित अवस्था में पड़ी है। चतुर्भुज यक्ष-यक्षी सपंफणों के छत्रों से युक्त हैं। पाश्वं के कन्धों पर जटाएं प्रदर्शित हैं। मन्दिर १२ के सभामण्डप एवं पश्चिमी चहारदीवारो की दसवीं-ग्यारहवीं शती ई० की दो खड़गासन मतियों में पाव के साथ यक्षी रूप में अम्बिका आमूर्तित है। इनमें यक्ष नहीं उत्कीर्ण है। मन्दिर १२ के प्रदक्षिणापथ की दसवीं शती ई० की एक कायोत्सर्ग मूर्ति में मूलनायक के दाहिने और बायें पावों में एक सर्पफण की छत्रावली से युक्त क्रमशः चामरधर पुरुष एवं छत्रधारिणी स्त्री आकृतियां उत्कीर्ण हैं। पांच अन्य मूर्तियों में भी ऐसी ही आकतियां नदी .२ १ मन्दिर ९ की एक एवं मन्दिर १२ की दो मूर्तियां २ मन्दिर ८ एवं १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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