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________________ १२८ [जैन प्रतिमाविज्ञान भी उत्कीर्ण हैं। यक्ष-यक्षी सर्वानुभूति एवं अम्बिका ही हैं। पार्श्वनाथ मन्दिर की पूर्वी दीवार की एक रथिका में ११०४ ई० की एक मूर्ति का सिंहासन सुरक्षित है । लेख में पार्श्वनाथ का नाम उत्कीर्ण है। पीठिका पर शान्तिदेवी एवं सर्वानुभूति और अम्बिका की मूर्तियां हैं। पार्श्वनाथ मन्दिर की देवकुलिका २३ में ११७९ ई० की एक मूर्ति है । लेख में पार्श्वनाथ का नाम दिया है। पार्श्वनाथ मन्दिर के गूढ़मण्डप में बारहवीं शती ई० की एक कायोत्सर्ग मूर्ति है । यहां यक्ष-यक्षी रूप में सर्वानुभूति एवं अम्बिका निरूपित हैं। पार्श्व से सम्बद्ध करने के लिए यक्ष-यक्षी के मस्तकों पर सर्पफणों के छत्र प्रदर्शित हैं। चामरधरों के ऊपर दो ध्यानस्थ जिन आकृतियां भी बनी हैं। ११५७ ई० की एक खड्गासन मूर्ति कुम्भारिया के नेमिनाथ मन्दिर के गूढमण्डप में है। सिंहासन-छोरों पर सर्वानुभूति एवं अम्बिका निरूपित हैं । परिकर में १९ उड्डीयमान आकृतियां एवं १४ चतुर्भुजी देवियां चित्रित हैं। देवियों में अधिकांश महाविद्याएं हैं जिनमें केवल अप्रतिचक्रा, वज्रशृंखला, सर्वास्त्र-महाज्वाला, रोहिणी एवं वैरोट्या की पहचान सम्भव है। विमलवसही की देवकुलिका ४ में ११८८ ई० की एक मूर्ति है जिसके शीर्ष भाग में सात सर्पफणों के छत्र और लेख में पार्श्वनाथ के नाम उत्कीर्ण हैं। ओसिया की मूर्ति के बाद यह दूसरी मूर्ति है जिसमें पार्श्व के साथ पारम्परिक यक्ष-यक्षी निरूपित हैं । मूलनायक के दोनों ओर दो कायोत्सर्ग और दो ध्यानस्थ जिन मूर्तियां हैं । ललितमुद्रा में विराजमान यक्ष पार्श्व एवं यक्षी पद्मावती तीन सर्पफणों की छत्रावलियों ये युक्त हैं । विमलवसही की देवकुलिका२५ में भी पार्श्व की एक मूर्ति है। पर यहां यक्ष-यक्षी सर्वानुभूति एवं अम्बिका हैं । विमलवसही की देवकुलिका ५३ में भी एक मूर्ति (११६५ ई०) है। ग्यारहवीं-बारहवीं शती ई० की एक दिगंबर मूर्ति राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली (३९.२०२) में है (चित्र ३३)।' पार्श्व कायोत्सर्ग में खड़े हैं और सर्प की कुण्डलियां उनके चरणों तक प्रसारित हैं। परिकर में नाग और नागी की वीणा और वेणु बजाती और नृत्य करती हुई ६ मूर्तियां हैं। मूलनायक के प्रत्येक पाश्र्व में एक स्त्री-पुरुष युगल आमूर्तित है जिनके हाथों में चामर एवं पद्म हैं। इस मूर्ति में यक्ष-यक्षी नहीं उत्कीर्ण हैं। कोटा क्षेत्र में रामगढ़ एवं अटरू से नवीं-दसवीं शती ई० की चार मूर्तियां मिली हैं। ये सभी मूर्तियां कोटा संग्रहालय में सुरक्षित हैं। तीन उदाहरणों में पार्श्व कायोत्सर्ग में खड़े हैं। सभी में चामरधर सेवक और नाग-नागी की आकृतियां उत्कीर्ण हैं। यक्ष-यक्षी केवल एक ही उदाहरण (३२२) में प्रदर्शित हैं। नवीं से बारहवीं शती ई० के मध्य की सात मूर्तियां गंगा गोल्डेन जुबिली संग्रहालय, बीकानेर में हैं। सभी उदाहरणों में पाश्र्ववर्ती जिनों एवं आठ या नौ ग्रहों की मूर्तियां चित्रित हैं। तीन उदाहरणों में सर्वानुभूति एवं अम्बिका भी निरूपित हैं । लूणवसही की देवकुलिका १० और ३३ में भी दो मूर्तियां (१२३६ ई०) हैं । इनमें भी यक्ष-यक्षी सर्वानुभूति एवं अम्बिका ही हैं। विश्लेषण-गुजरात एवं राजस्थान की मूर्तियों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र में सात सर्पफणों के छत्र के साथ ही लेखों में पार्श्वनाथ के नामोल्लेख की परम्परा भी लोकप्रिय थी। पर लांछन एवं पारम्परिक यक्ष-यक्षी का निरूपण दुर्लभ है। केवल ओसिया (बलानक) एवं विमलवसही (देवकुलिका ४) की ग्यारहवीं-बारहवीं शती ई० को दो मतियों में ही यक्ष-यक्षी पारम्परिक हैं। अन्य उदाहरणों में यक्ष-यक्षी सर्वानुभूति एवं अम्बिका हैं। कुछ उदाहरणों में पार्व से सम्बन्धित करने के उद्देश्य से यक्ष-यक्षी के सिरों पर सर्पफणों के छत्र भी प्रदर्शित किये गये हैं। पावं के दोनों ओर दो कायोत्सर्ग जिनों एवं परिकर में महाविद्याओं, ग्रहों, शान्तिदेवी आदि के चित्रण विशेष लोकप्रिय थे। उत्तरप्रदेश-मध्यप्रदेश राज्य संग्रहालय, लखनऊ में आठवीं से दसवीं शती ई० के मध्य की दस मूर्तियां हैं। पांच उदाहरणों में पार्श्व ध्यानमुद्रा में आसीन हैं। यक्ष-यक्षी चार ही उदाहरणों में निरूपित हैं। परम्परिक यक्ष-यक्षी १ अमेरिकन इन्स्टिट्यूट ऑव इण्डियन स्टडीज, वाराणसी, चित्र संग्रह ए २.२८ २ क्रमांक ३१९, ३२०, ३२१, ३२२ ३ श्रीवास्तव, वी० एस०, पू०नि०, पृ० १८-१९ ४ क्रमांक जे ७९४, जे ८८२, जे ८५९, जे ८४६, ४८.१८२, जी ३१०, ४०.१२१, जी २२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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