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[ जैन प्रतिमाविज्ञान
मन्दिर १२ की पश्चिमी चहारदीवारी की एक ध्यानस्थ मूर्ति ( ल० ११वीं शती ई०) में पुरुष के हाथ में छत्र प्रदर्शित है । मन्दिर ४ की कायोत्सर्गं मूर्ति (११वीं शती ई०) में चामरधर सेवक तीन सर्पफणों के छत्र से युक्त हैं । मन्दिर १२ के सभामण्डप की एक कायोत्सर्ग मूर्ति (११वीं शती ई०) में नवग्रहों की मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं । दक्षिण पार्श्व में चामरधर के समीप दो स्त्री आकृतियां खड़ी हैं । वामपार्श्व में द्विभुज अम्बिका है । मन्दिर ९, साहू जैन संग्रहालय, देवगढ़, एवं मन्दिर ४ की मूर्तियों के परिकर में चार एवं मन्दिर ३ एवं मन्दिर १२ की पश्चिमी चहारदीवारी की मूर्तियों में दो छोटी जिन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं ।
० नवीं शती ई० की एक कायोत्सर्गं मूर्ति रींवा ( म०प्र०) के समीप गुर्गी नामक स्थान से मिली है और इलाहाबाद संग्रहालय ( ए० एम० ४९९) में सुरक्षित है। इसमें सर्प की कुण्डलियां चरणों तक बनी हैं। दोनों पावों में क्रमशः एक सर्पंफण से युक्त चामरधर सेवक और छत्रधारिणी सेविका आमूर्तित हैं । कगरोल (मथुरा) से मिली १०३४ ई० की एक ध्यानस्थ मूर्ति पुरातत्व संग्रहालय, मथुरा (२८७४ ) में है । यहां सिंहासन के छोरों पर सामान्य लक्षणों वाले द्विभुज यक्ष - यक्षी निरूपित हैं ।
खजुराहो में दसवीं से बारहवीं शती ई० के मध्य की ग्यारह मूर्तियां हैं। छह उदाहरणों में पार्श्व कायोत्सर्ग में खड़े हैं। सात उदाहरणों में सर्प की कुण्डलियां चरणों तक प्रसारित । पांच उदाहरणों में पार्श्व सर्प की कुण्डलियों पर ही विराजमान हैं । यक्ष-यक्षी केवल चार ही उदाहरणों में निरूपित हैं । दो कायोत्सर्ग मूर्तियों (मन्दिर २८ एवं ५ ) में मूलनायक के पार्श्वो में तीन सर्प फणों वाले स्त्री-पुरुष चामरधर उत्कीर्ण हैं । दो ध्यानस्थ मूर्तियों (११ वीं शती ई०) में सर्पफणों के छत्रों से युक्त चामरधर सेवक और छत्रधारिणी सेविका हैं । मन्दिर ५ की बारहवीं शती ई० की एक ध्यानस्थ मूर्ति में सामान्य चामरधरों के समीप दो अन्य स्त्री-पुरुष चामरधर चित्रित हैं जिनके शीर्षभाग में सात सर्पफणों के छत्र हैं । ये धरणेन्द्र और पद्मावती की मूर्तियां हैं। मूर्ति के परिकर में एक छोटी जिन, बायें छोर पर द्विभुज देवी और पीठिका के मध्य में चतुर्भुज सरस्वती ( या शान्तिदेवी) की मूर्तियां हैं। स्थानीय संग्रहालय की वारहवीं शती ई० की एक मूर्ति (के ९) में पीठिका पर चार ग्रहों एवं परिकर में ४६ जिनों की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं |
स्थानीय संग्रहालय की ग्यारहवीं शती ई० की एक कायोत्सर्ग मूर्ति (के ५) में चतुर्भुज यक्ष और द्विभुज यक्षी निरूपित हैं । यक्षी तीन सर्पफणों की छत्रावली से युक्त है । परिकर में छह छोटी जिन मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं । पुरातात्विक संग्रहालय, खजुराहो की बारहवीं शती ई० की एक ध्यानस्थ मूर्ति (१६१८) में द्विभुज यक्ष-यक्षी सर्पफणों से शोभित हैं । परिकर में चार छोटी जिन मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं । स्थानीय संग्रहालय की ग्यारहवीं शती ई० की दो अन्य मूर्तियों (के ६८, १००) में भी यक्ष-यक्षी सर्पफणों की छत्रावलियों से युक्त हैं । एक उदाहरण (के ६८) में चतुर्भुज यक्ष-यक्षी धरणेन्द्र एवं पद्मावती हैं । इस मूर्ति के परिकर में २० जिन मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं । मन्दिर १ और जार्डिन संग्रहालय, खजुराहो (१६६८) की दो ध्यानस्थ मूर्तियों के परिकर में भी क्रमशः १८ और ६ जिन मूर्तियां हैं धुबेला संग्रहालय की एक ध्यानस्थ मूर्ति ( ४९, ११ वीं - १२ वीं शती ई०) में चतुर्भुज नागी एवं द्विभुज नाग की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । 3
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विश्लेषण - उत्तरप्रदेश एवं मध्यप्रदेश की मूर्तियों के विस्तृत अध्ययन से ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र में पार्श्व के साथ सात सर्पंफणों के छत्र का प्रदर्शन नियमित था और अधिकांशतः इसी के आधार पर पार्श्व की पहचान भी की गई
है । पार्श्व के साथ लांछन केवल दो ही मूर्तियों (११वीं - १२वीं शती ई०) में उत्कीर्ण हैं । ये मूर्तियां राज्य संग्रहालय, लखनऊ (जी २२३) एवं देवगढ़ के मन्दिर १२ की चहारदीवारी पर हैं । पाखं के साथ यक्ष-यक्षी युगल का निरूपण विशेष लोकप्रिय नहीं था । पारम्परिक यक्ष-यक्षी, धरणेन्द्र - पद्मावती, केवल देवगढ़, खजुराहो एवं राज्य संग्रहालय, लखनऊ
१ चन्द्र, प्रमोद, पू०नि०, पृ० ११५
२ मन्दिर १ एवं जाडिन संग्रहालय, खजुराहो, १६६८
३ दीक्षित, एस०के०, ए गाइड टू दि स्टेट म्यूजियम, धुबेला (नवगांव), विन्ध्यप्रदेश, नवगांव, १९५७, पृ० १४-१५
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