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[ जैन प्रतिमाविज्ञान
बाद मुनिसुव्रत भृगुकच्छ गये और वहां कोरण्टवन में अपना उपदेश प्रारम्भ किया। भृगुकच्छ के शासक जितशत्रु के अश्वमेध यज्ञ का अश्व भी रक्षकों के साथ मुनिसुव्रत के उपदेशों का श्रवण कर रहा था। अपने उपदेश में मुनिसुव्रत ने अपने और उस अश्व के पूर्व जन्मों की कथा का भी उल्लेख किया। उपदेशों के बाद उस अश्व ने छह माह तक जैन श्रावक के लिए बताये गये मार्ग का अनुसरण किया। अगले जन्म में यही अश्व सौधर्म लोक (स्वर्ग) में देवता हआ। मतिज्ञान से पिछले जन्म की बातों का स्मरण कर वह मुनिसुव्रत के उपदेश-स्थल पर गया और वहां उसने मुनिसुव्रत के मन्दिर का निर्माण किया। मुनिसुव्रत की मूर्ति के समक्ष ही उसने अश्वरूप में अपनी भी एक मर्ति प्रतिष्ठित की। उसी समय से वह स्थान अश्वावबोध तीर्थ के रूप में जाना जाने लगा।
दूसरी कथा इस प्रकार है। सिंहल द्वीप के रत्नाशय देश में श्रीपुर नाम का एक नगर था, जहां का शासक चन्द्रगुप्त था। एक बार उसके दरबार में भृगुकच्छ का एक व्यापारी (धनेश्वर) आया। दरबार में इस व्यापारी के 'ओम नमो अरिहंतानाम' मंत्र के उच्चारण से चन्द्रगुप्त की पुत्री सुदर्शना पूर्वजन्म की कथा का स्मरण कर मछित हो गयी। पूर्वजन्म में सुदर्शना भृगुकच्छ के समीप कोरण्ट उद्यान में शकुनि पक्षी थी। एक बार वह शिकारी के बाणों से घायल होकर कराह रही थी। उसी समय पास से गुजरते हुए एक जैन आचार्य ने उसके ऊपर जलस्राव किया और उसे नवकार मन्त्र सुनाया । नवकार मन्त्र के प्रति अपनो श्रद्धा के कारण ही शकुनि मृत्यु के बाद सुदर्शना के रूप में उत्पन्न हुई । पूर्वजन्म की इस घटना का स्मरण होने के बाद से सुदर्शना सांसारिक सुखों से विरक्त हो गई। उसने व्यापारी के साथ भृगकच्छ के तीथं की यात्रा भी की। सुदर्शना ने अश्वावबोध तीर्थ में मुनिसुव्रत की पूजा की और उस तीर्थस्थली का पुनरुद्धार करवाकर वहां २४ जिनालयों का निर्माण करवाया। इस घटना के कारण उस स्थल को शकुनिका-विहार-तीर्थ भी कहा गया । चौलुक्य शासक कुमारपाल के मन्त्री उदयन के पुत्र आम्रभट्ट ने इस देवालय का पुनरुद्धार करवाया था।
___ जालोर के पार्श्वनाथ मन्दिर के पट्ट के दृश्य दो भागों में विभक्त हैं। ऊपर अश्वावबोध और नीचे शकुनिकाविहार-तीर्थ की कथाएं उत्कीर्ण हैं। ऊपरी भाग में मध्य में एक जिनालय उत्कीर्ण है जिसमें मुनिसुव्रत की ध्यानस्थ मति है। जिनालय के समीप के एक अन्य देवालय में मुनिसुव्रत के चरण-चिह्न अंकित हैं। बायीं ओर एक अश्व आकृति उत्कीर्ण है। कुम्भारिया के पट्ट पर अश्व आकृति के नीचे 'अश्वप्रतिबोध' लिखा है। अश्व के समीप कुछ रक्षक भी खड़े हैं। जिनालय के दाहिनी ओर सिंहलद्वीप के शासक चन्द्रगुप्त की मूर्ति है। सुदर्शना चन्द्रगुप्त की गोद में बैठी है । समीप ही दो सेवकों एवं व्यापारी की मूर्तियां हैं। पट्ट के निचले भाग में दाहिने छोर पर एक वृक्ष उत्कीर्ण है जिसकी डाल पर शकुनि बैठी है। वृक्ष के दाहिने ओर शिकारी और बायीं ओर जैन साधुओं की दो आकृतियां चित्रित हैं। नीचे एक वृत्त के रूप में समुद्र उत्कीर्ण है जिसमें जिनालय की ओर आती एक नाव प्रदर्शित है। नाव में सुदर्शना बैठी है। यह सुदर्शना के अश्वावबोध तीर्थ की ओर आने का दृश्यांकन है।
(२१) नमिनाथ जीवनवृत्त
नमिनाथ इस अवसर्पिणी के इक्कीसवें जिन हैं। मिथिला के शासक विजय उनके पिता और वप्रा (या विपरीता) उनकी माता थीं। जब नमि का जीव गर्भ में था उसी समय शत्रुओं ने मिथिला नगरी को घेर लिया था। वप्रा ने जब राजप्रासाद की छत से शत्रुओं को सौम्य दृष्टि से देखा तो शत्रु शासक का हृदय बदल गया और वह विजय के समक्ष नतमस्तक हो गया । शत्रुओं के इस अप्रत्याशित नमन के कारण ही बालक का नाम नमिनाथ रखा गया । राजपद के उपभोग के बाद नमि ने दीक्षा ली और नौ माह की तपस्या के बाद मिथिला के चित्रवन में बकुल (या जम्बू) वृक्ष के नीचे केवल-ज्ञान प्राप्त किया । इनकी निर्वाण-स्थलो सम्मेद शिखर है।'
१ हस्तीमल, पू०नि०, पृ० १३६-३८
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