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________________ जिन-प्रतिमाविज्ञान ] ११७ मूर्तियां नमि का लांछन नीलोत्पल है और यक्ष-यक्षी भृकुटि एवं गांधारी (या मालिनी या चामुण्डा) हैं। शिल्प में नमि के पारम्परिक यक्ष-यक्षी का चित्रण नहीं हुआ है। उपलब्ध नमि मूर्तियां ग्यारहवीं-बारहवीं शती ई० की हैं। ग्यारहवीं शती ई० की एक मूर्ति पटना संग्रहालय में है।' मूर्ति के परिकर में २४ छोटी जिन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । एक ध्यानस्थ मूर्ति बारभुजी गुफा में है। नीचे यक्षी भी निरूपित है। रैदिधो (बंगाल) के समीप मथुरापुर से कायोत्सर्ग में खड़ी एक श्वेतांबर मूर्ति मिली है। कुम्भारिया के पार्श्वनाथ मन्दिर की देवकुलिका २१ में ११७९ ई० की एक नमि मूर्ति है । लूणवसही की देवकुलिका १९ में भी १२३३ ई० की एक मूर्ति है । यहां पीठिका-लेख में नमि का नाम भी उत्कीर्ण है। यक्ष-यक्षी सर्वानुभूति एवं अम्बिका हैं । (२२) नेमिनाथ (या अरिष्टनेमि) जीवनवृत्त नेमिनाथ या अरिष्टनेमि इस अवसर्पिणी के बाईसवें जिन हैं। द्वारावतो के हरिवंशी महाराज समुद्रविजय उनके पिता और शिवा देवी उनकी माता थीं। शिवा के गर्भकाल में समुद्र विजय सभी प्रकार के अरिष्टों से बचे थे तथा गर्मावस्था में माता ने अरिष्टचक्र नेमि का दर्शन किया था, इसी कारण बालक का नाम अरिष्टनेमि या नेमि रखा गया । समुद्रविजय के अनुज वसुदेव सौरिपुर के शासक थे । वसुदेव की दो पत्नियां, रोहिणी और देवकी थीं। रोहिणी से बलराम, और देवकी से कृष्ण उत्पन्न हुए । इस प्रकार कृष्ण एवं बलराम नेमि के चचेरे भाई थे । इस सम्बन्ध के कारण ही मथुरा, देवगढ़, कुम्भारिया, विमलवसही एवं लूणवसही के मूतं अंकनों में नेमि के साथ कृष्ण एवं बलराम भी अंकित हए। कृष्ण और रुविमणी के आग्रह पर नेमि राजीमती के साथ विवाह के लिए तैयार हए। विवाह के लिए जाते समय नेमि ने मार्ग में पिजरों में बन्द और जालपाशों में बंधे पशुओं को देखा । जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि विवाहोत्सव के अवसर पर दिये जानेवाले भोज के लिए उन पशुओं का वध किया जायगा तो उनका हृदय विरक्ति से भर गया। उन्होंने तत्क्षण पशुओं को मुक्त करा दिया और बिना विवाह किये वापिस लौट पड़े और साथ ही दीक्षा लेने के निर्णय की भी घोषणा की । नेमि के निष्क्रमण के समय मानवेन्द्र, देवेन्द्र, बलराम एवं कृष्ण उनकी शिविका के साथ-साथ चल रहे थे। नेमि ने उज्जयंत पर्वत पर सहस्राम्र उद्यान में अशोक वृक्ष के नीचे अपने आभरणों एवं वस्त्रों का परित्याग किया और पंचमुष्टि में केशों का लुंचन कर दीक्षा ग्रहण की। ५४ दिनों की तपस्या के बाद उज्जयंतगिरि स्थित रेवतगिरि पर बेतस वृक्ष के नीचे नेमि को कैवल्य प्राप्त हुआ। यहीं देवनिर्मित समवसरण में नेमि ने अपना पहला धर्मोपदेश भो दिया । नेमि की निर्वाण-स्थली भी उज्जयंतगिरि है ।४. प्रारम्भिक मूर्तियां नेमि का लांछन शंख है और यक्ष-यक्षी गोमेध एवं अम्बिका (या कुष्माण्डी) हैं। नेमि की मूर्तियों में यक्षी सदैव अम्बिका है पर यक्ष गोमेध के स्थान पर प्राचीन परम्परा का सर्वानुभूति (या कुबेर) यक्ष है। जैन ग्रन्थों में नेमि से सम्बन्धित बलराम एवं कृष्ण की भी लाक्षणिक विशेषताएं विवेचित हैं। कृष्ण के मुख्य लक्षण गदा (कुमद्वती), खड़ग (नन्दक), चक्र, अंकुश, शंख एवं पद्म हैं। कृष्ण किरीटमुकुट, वनहार, कौस्तुभमणि आदि से सज्जित हैं। माला एवं मुकुट से शोभित बलराम के मुख्य लक्षण गदा, हल, मुसल, धनुष एवं बाण हैं।" १ गुप्ता, पी०एल०, पू०नि०, पृ० ९० २ मित्रा, देबला, पू०नि०, पृ० १३२ ३ दत्त, कालिदास, 'दि एन्टिक्विटीज ऑव खारी', ऐनुअलरिपोर्ट, वारेन्द्र रिसर्च सोसाइटी, १९२८-२९, पृ० १-११ ४ हस्तीमल, पू०नि०, पृ० १३९-२३९ ५ नेमि का शंख लांछन उनके पूर्वभव के शंख नाम से सम्बन्धित रहा हो सकता है। ६ हरिवंशपुराण ३५.३५ ७ हरिवंशपुराण ४१.३६-३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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