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जिन-प्रतिमाविज्ञान ]
___ उत्तरप्रदेश-मध्यप्रदेश-ल० दसवीं शती ई० की एक मूर्ति बजरामठ (ग्यारसपुर) के प्रकोष्ठ में है।' १००६ ई० की एक श्वेतांबर मूर्ति आगरा के समीप से मिली है और राज्य संग्रहालय, लखनऊ (जे ७७६) में सुरक्षित है । मूर्ति काले पत्थर में उत्कीर्ण है। ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा में मुनिसुव्रत के शरीर का रंग काला बताया गया है। सिंहासन पर कूर्म लांछन और लेख में 'मुनिसुव्रत' नाम आया है। मुनिसुव्रत ध्यानमुद्रा में विराजमान हैं। मूर्ति के परिकर में जीवन्तस्वामी एवं बलराम और कृष्ण की मूर्तियां हैं। यक्ष-यक्षी सर्वानुभूति एवं अम्बिका हैं। यक्ष के समीप एक स्त्री आकृति है जिसकी वाम भुजा में पुस्तक है। चामरधरों के समीप कायोत्सर्ग-मुद्रा में दो श्वेतांबर जिन मूर्तियां बनी हैं। इन आकृतियों के ऊपर जीवन्तस्वामो की दो कायोत्सर्ग मूर्तियां हैं। जीवन्तस्वामी मुकुट, हार, बाजूबंद, कर्णफूल आदि से शोभित हैं। मूलनायक के त्रिछत्र के ऊपर एक ध्यानस्थ जिन मूर्ति उत्कीर्ण है जिसके दोनों ओर चतुर्भुज बलराम एवं कृष्ण की मूर्तियां हैं । कृष्ण एवं बलराम की मूर्तियों के आधार पर मध्य की जिन मूर्ति की पहचान नेमि से की जा सकती है। वनमाला एवं तीन सपंफणों के छत्र से युक्त बलराम की भुजाओं में वरदमुद्रा, मुसल, हल एवं फल हैं। किरीटमुकुट एवं वनमाला से सज्जित कृष्ण के तीन अवशिष्ट करों में वरदमुद्रा, गदा एवं शंख प्रदर्शित हैं। ल० ग्यारहवीं शती ई० की कूर्म-लांछन-युक्त एक कायोत्सर्ग मूर्ति खजुराहो के मन्दिर २० में है। इसमें यक्ष-यक्षी नहीं उत्कीर्ण हैं। पर परिकर में चार छोटी जिन मूर्तियां बनी हैं। ११४२ ई० की एक ध्यानस्थ मूर्ति धुबेला संग्रहालय (४२) में सुरक्षित है। पीठिका लेख में मुनिसुव्रत का नाम उत्कीर्ण है ।
बिहार-उड़ीसा-बंगाल-इस क्षेत्र में बारभुजी एवं त्रिशूल गुफाओं में दो मूर्तियां हैं। इनमें मुनिसुव्रत ध्यानमुद्रा में विराजमान हैं। बारभुजी गुफा की मूर्ति में यक्षी भी आमूर्तित है। एक मूर्ति (ल० ९वीं-१०वीं शती ई०) राजगिर से भी मिली है ।" ध्यानस्थ जिन के सिंहासन के नीचे बहुरूपिणी यक्षी की शय्या पर लेटी मूर्ति बनी है। जीवनदृश्य
मुनिसुव्रत के जीवनदृश्य केवल स्वतन्त्र पट्टों पर उत्कीर्ण हैं। इन पट्टों पर मुनिसुव्रत के जीवन की केवल दो ही घटनाएं मिलती हैं जो अश्वावबोध एवं शकुनिका-विहार-तीर्थ की उत्पत्ति से सम्बन्धित हैं । गुजरात एवं राजस्थान में बारहवीं-तेरहवीं शती ई० के ऐसे चार पट्ट मिले हैं। बारहवीं शती ई० का एक पट्ट जालोर के पाश्वनाथ मन्दिर के गूढमण्डप में है। अन्य सभी पट्ट तेरहवीं शती ई० के हैं और कुम्भारिया के महावीर एवं नेमिनाथ मन्दिरों, लूणवसही की देवकुलिका १९ एवं कैम्बे के जैन मन्दिर में सुरक्षित हैं। सभी पट्टों के दृश्यांकन विवरणों की दृष्टि से लगभग समान हैं।
___ जैन ग्रन्थों में मुनिसुव्रत के जीवन से सम्बन्धित उपर्युक्त दोनों ही घटनाओं के विस्तृत उल्लेख हैं। कैवल्य प्राप्ति के बाद मतिज्ञान से एक बार मुनिसुव्रत को ज्ञात हुआ कि एक अश्व को उनके उपदेशों की आवश्यकता है। इसके
१ जिन के आसन के नीचे शय्या पर लेटी यक्षी (बहुरूपिणी) के आधार पर जिन की सम्भावित पहचान मुनिसुव्रत से
की गयी है। २ जीवन्तस्वामी की दो मूर्तियों का उत्कीर्णन इस बात का संकेत है कि महावीर के अतिरिक्त अन्य जिनों के भी जीवन्तस्वामी स्वरूप की कल्पना की गई थी। कुछ परवर्ती ग्रन्थों में पार्श्वनाथ के जीवन्तस्वामी स्वरूप का उल्लेख
भी हुआ है । जैसलमेर संग्रहालय में जीवन्तस्वामी चन्द्रप्रभ की एक मूर्ति भी है। ३ जैन, बालचन्द्र, 'धुबेला संग्रहालय के जैन मूर्ति लेख', अनेकान्त, वर्ष १९, अं० ४, पृ० २४४ ४ मित्रा, देबला, पू०नि०, पृ० १३२; कुरेशी, मुहम्मद हमीद, पू०नि०, पृ० २८२ ५ जै००स्था०, खं० १, पृ० १७२ ६ कुम्भारिया का पट्ट १२८१ ई० के लेख से युक्त है । पट्ट के दृश्यों के नीचे उनके विवरण भी उत्कीर्ण हैं। ७ त्रिश०पु०च०, खं० ४, गायकवाड़ ओरियण्टल सिरीज १२५, बड़ौदा, १९५४, पृ० ८६-८८; जयन्त विजय,
मुनिश्री, पू०नि०. पृ० १००-०५
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