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[ जैन प्रतिमाविज्ञान
बिहार-उड़ीसा-बंगाल-अलुआरा (पटना संग्रहालय १०६९५)' एवं सोनगिरि से चन्द्रप्रभ की दो कायोत्सर्ग मूर्तियां (११ वीं शती ई०) मिली हैं । ग्यारहवीं शती ई० की एक कायोत्सर्ग मूर्ति भारतीय संग्रहालय, कलकत्ता में भी है। इसमें पीठिका पर यक्ष-यक्षी और परिकर में २३ छोटी जिन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । बारभुजी एवं त्रिशूल गुफाओं में भी चन्द्रप्रभ की .दो ध्यानस्थ मूर्तियां हैं। बारभुजी गुफा की मूर्ति में द्वादशभुज यक्षी भी आमूर्तित है । कोणार्क (उड़ीसा) के निकटवर्ती ककतपुर से प्राप्त चन्द्रप्रभ की कायोत्सर्ग में खड़ी एक धातु मूर्ति (१२ वीं शती ई०) आशुतोष संग्रहालय, कलकत्ता में है।"
(९) सुविधिनाथ या पुष्पदन्त जीवनवृत्त
सुविधिनाथ (या पुष्पदन्त) इस अवसर्पिणी के नवें जिन हैं। काकन्दी नगर के शासक सुग्रीव उनके पिता और रामादेवी उनकी माता थीं। जैन परम्परा में उल्लेख है कि गर्भकाल में माता सब विधियों में कुशल रहीं, और उन्हें पुष्प का दोहद उत्पन्न हुआ, इसी कारण बालक का नाम क्रमशः सुविधि और पुष्पदन्त रखा गया । श्वेतांबर परम्परा में सुविधि और पुष्पदन्त दोनों नामों के उल्लेख हैं, पर दिगंबर परम्परा में केवल पुष्पदन्त नाम ही प्राप्त होता है। राजपद के उपभोग के बाद सुविधि ने दीक्षा ली और चार माह की तपस्या के बाद काकन्दी के सहस्राम्र वन में मालूर (या माली या अक्ष) वृक्ष के नीचे केवल-ज्ञान प्राप्त किया। सम्मेद शिखर इनकी निर्वाण-स्थली है।
मूर्तियां
सुविधि का लांछन मकर है और यक्ष-यक्षी अजित (या जय) एवं सुतारा (या चण्डालिका) हैं। दिगंबर परम्परा में यक्षी का नाम महाकाली है । मूर्त अंकनों में सुविधि के यक्ष-यक्षी नहीं निरूपित हुए । केवल बारभुजी गुफा की मूर्ति में ही यक्षी निरूपित है।
पुष्पदन्त की प्राचीनतम मूर्ति ल० चौथी शती ई० की है। विदिशा से मिली इस मूर्ति में पुष्पदन्त ध्यानमुद्रा में विराजमान हैं । लेख में पुष्पदन्त का नाम उत्कीर्ण है । भामण्डल और चामरधर भी चित्रित हैं । इस मूर्ति और ग्यारहवीं शती ई० के बीच की कोई मूर्ति ज्ञात नहीं है। मकर लांछन युक्त दो ध्यानस्थ मूर्तियां बारभुजी एवं त्रिशल गुफाओं में हैं।९११५१ ई० की एक कायोत्सर्ग मूर्ति छतरपुर से मिली है। कुम्भारिया के पार्श्वनाथ मन्दिर की देवकूलिका ९ (१२०२ ई०) में भी एक मूर्ति है । इस मूर्ति के लेख में सुविधि का नाम उत्कीर्ण है। परिकर में दो जिन मूर्तियां भी बनी हैं।
(१०) शीतलनाथ जीवनवृत्त
शीतलनाथ इस अवसर्पिणी के दसवें जिन हैं । मदिदलपुर के महाराज दृढ़रथ उनके पिता और नन्दादेवी उनकी माता थीं। जैन परम्परा में उल्लेख है कि गर्भकाल में नन्दा देवी के स्पर्श से एक बार दृढ़रथ के शरीर की भयंकर पीडा
१ प्रसाद, एच० के, पू०नि, पृ० २८७
२ वा०अहिं०, खं० १२, अं० ९ ३ स्टजै०आ०, फलक १६, चित्र ४४ ४ मित्रा, देबला, पू०नि०, पृ० १३१; कुरेशी, मुहम्मद हमीद, पू०नि०, पृ० २८१ ५ जे०क०स्था०, खं० २, पृ० २७७
६ त्रिश०पु०च० ३.७.४९-५० ७ हस्तोमल, पू०नि०, पृ० ८८-९०
८ अग्रवाल, आर० सी०, पू०नि०,पृ० २५२-५३ ९ मित्रा. देबला. प्र०नि०. पृ० १३१: कुरेशी, मुहम्मद हमीद, पू०नि०, प० २८१ १० शास्त्री, हीरानन्द, 'सम रिसेन्टली ऐडेड स्कल्पचर्स इन दि प्राविन्शियल म्यूजियम, लखनऊ', मे०आ०स०ई०,
अं० ११, १० १४
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