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________________ जिन - प्रतिमाविज्ञान ] शान्त हुई थी, इसी कारण बालक का नाम शीतलनाथ रखा गया । तीन माह की तपस्या के बाद सहस्राम्र वन में प्लक्ष (पीपल) वृक्ष के निर्वाण स्थली है । 2 मूर्तियां शीतल का लांछन श्रीवत्स है और यक्ष-यक्षी ब्रह्म ( या ब्रह्मा ) एवं अशोका ( या गोमेधिका) हैं । दिगंबर परम्परा में यक्षी मानवी है । मूर्त अंकनों में यक्ष-यक्षी का चित्रण दुर्लभ है । केवल बारभुजी गुफा की मूर्ति में यक्षी निरूपित है । शीतल की दसवीं शती ई० से पहले की एक भी मूर्ति नहीं मिली है । १०५ राजपद के उपभोग के बाद उन्होंने दीक्षा ली और नीचे कैवल्य प्राप्त किया । सम्मेद शिखर इनकी बारभुजी गुफा में श्रीवत्स - लांछन-युक्त एक ध्यानस्थ मूर्ति है । 3 दसवीं - ग्यारहवीं शती ई० की दो मूर्तियां आरंग ( म०प्र०) से मिली हैं । त्रिपुरी (जबलपुर) से प्राप्त एक मूर्ति भारतीय संग्रहालय, कलकत्ता में है ।" कुम्भारिया के पार्श्वनाथ मन्दिर की देवकुलिका १० में भी एक मूर्ति (१२०२ ई० ) है । मूर्ति के लेख में शीतलनाथ का नाम उत्कीर्ण है । (११) श्रेयांशनाथ जीवनवृत्त श्रेयांशनाथ इस अवसर्पिणी के ग्यारहवें जिन हैं। सिंहपुरी के शासक विष्णु उनके पिता और विष्णुदेवी (या वेणुदेवी ) उनकी माता थीं । जैन परम्परा के अनुसार बालक के जन्म से राजपरिवार और सम्पूर्ण राष्ट्र का श्रेय - कल्याण हुआ, इसी कारण बालक का नाम श्रेयांश रखा गया । राजपद के उपभोग के बाद सहस्राम्र वन में श्रेयांश ने अशोक वृक्ष के नीचे दीक्षा ली और दो मास की तपस्या के बाद सिंहपुर के उद्यान में तिन्दुक ( या पलाश) वृक्ष के नीचे कैवल्य प्राप्त किया । सम्मेद शिखर इनकी निर्वाण स्थली है । ७ मूर्तियां श्रेयांश का लांछन गैंडा (खड्गी ) है और यक्ष-यक्षी ईश्वर ( या यक्षराज ) एवं मानवी हैं । दिगंबर परम्परा में यक्षी गौरी है । मूर्तियों में यक्ष- यक्षी का निरूपण नहीं हुआ है । केवल बारभुजी गुफा की मूर्ति में यक्षी निरूपित है । ग्यारहवीं शती ई० से पहले की श्रेयांश की एक भी मूर्ति नहीं मिलो है । ल० ग्यारहवीं शती ई० की एक कायोत्सर्ग मूर्ति बारभुजी एवं त्रिशूल गुफाओं में हैं ।" एक मूर्ति इन्दौर संग्रहालय में है । " पार्श्वनाथ मन्दिर की देवकुलिका ११ में श्रेयांश की मूर्ति का सिंहासन श्रेयांश का नाम उत्कीर्ण है । कबीरा (पुरुलिया) से मिली है ।' दो मूर्तियां लांछन सभी में उत्कीर्ण हैं । कुम्भारिया के ( १२०२ ई०) सुरक्षित है । इसकी पीठिका पर (१२) वासुपूज्य जीवनवृत्त वासुपूज्य इस अवसर्पिणी के बारहवें जिन हैं । चम्पानगरी के महाराज वसुपूज्य उनके पिता ओर जया ( या विजया) उनकी माता थीं । वसुपूज्य का पुत्र होने के कारण ही इनका नाम वासुपूज्य रखा गया । जैन परम्परा में ५ एण्डरसन, जे० पू०नि०, पृ० २०६ ६ त्रि० श०पु०च० ४.१.८६ १ त्रि० श०पु०च० ३.८.४७ २ हस्तीमल, पु०नि०, पृ० ९१-९३ ४ जैन, बालचन्द्र, 'महाकौशल का जैन पुरातत्व', अनेकान्त, वर्ष १७, अं० ३, पृ० १३२ Jain Education International ३ मित्रा, देवला, पू० नि०, पृ० १३१ ७ हस्तीमल, पू०नि०, पृ० ९४-९८ ८ बनर्जी, ए०, 'टू जैन इमेजेज़', ज०बि० उ०रि०सी०, खं० २८, भाग १, पृ० ४४ ९ मित्रा, देबला, पू०नि०, पृ० १३१; कुरेशी, मुहम्मद हमीद, पू०नि०, पृ० २८२ १० दिस्कालकर, डी० बी, दि इन्दौर म्यूज़ियम, इन्दौर, १९४२, पृ०५ १४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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