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________________ जिन-प्रतिमाविज्ञान ] १०३ प्रभा भी चन्द्रमा को तरह थो, इसी कारण बालक का नाम चन्द्रप्रभ रखा गया। राजपद के उपभोग के बाद चन्द्रप्रम ने दीक्षा ली और तीन माह की तपस्या के बाद चन्द्रपुरी के सहस्राम्र वन में प्रियंगु (या नाग) वृक्ष के नीचे कैवल्य प्राप्त किया। सम्मेद शिखर उनकी निर्वाण-स्थली है। मूर्तियां चन्द्रप्रभ का लांछन शशि है और यक्ष-यक्षी विजय (या श्याम) एवं भृकुटि (या ज्वाला) हैं। मूर्तियों में पारम्परिक यक्ष-यक्षी का अंकन नहीं हुआ है। ल० नवीं शती ई० में चन्द्रप्रभ के लांछन और यक्ष-यक्षी का अंकन प्रारम्भ हुआ। चन्द्रप्रभ की प्राचीनतम मूर्ति ल० चौथी शती ई० की है। विदिशा से मिली इस ध्यानस्थ मूर्ति के लेख में चन्द्रप्रभ का नाम है। मूर्ति में लांछन नहीं है, यद्यपि चामरधर, सिंहासन और प्रभामण्डल उत्कीर्ण हैं। इस मूर्ति के बाद और नवीं शती ई० के पूर्व की एक भी मूर्ति नहीं मिली है। गुजरात-राजस्थान-इस क्षेत्र से केवल दो मूर्तियां मिली हैं जो ध्यानमुद्रा में हैं। ११५२ ई० की पहली मूर्ति राजपूताना संग्रहालय, अजमेर में है। दूसरी मूर्ति (१२०२ ई०) कुम्भारिया के पार्श्वनाथ मन्दिर की देवकुलिका ८ में है। लेख में चन्द्रप्रभ का नाम उत्कीर्ण है। उत्तरप्रदेश-मध्यप्रदेश-नवीं शती ई० की एक ध्यानस्थ मूर्ति कौशाम्बी से मिली है और इलाहाबाद संग्रहालय (२९५) में सुरक्षित है (चित्र १७)।५ पीठिका पर चन्द्र लांछन और द्विभुज यक्ष-यक्षी उत्कीर्ण हैं । दसवीं-ग्यारहवीं शती ई० को शशि लांछनयुक्त तीन मूर्तियां राज्य संग्रहालय, लखनऊ में हैं। दो उदाहरणों में चन्द्रप्रभ ध्यानमुद्रा में विराजमान हैं। सिरोनी खुदं (ललितपुर) की दसवीं शती ई० के तीसरे उदाहरण में जिन कायोत्सर्ग-मुद्रा में (जे ८८१) तथा द्विभुज यक्षयक्षी के साथ निरूपित हैं। चन्द्र प्रम के स्कन्धों पर जटाएं भी प्रदर्शित हैं । ____ खजुराहो में दो ध्यानस्थ मूर्तियां हैं । पार्श्वनाथ मन्दिर के गर्भगृह की पश्चिमी भित्ति की मूर्ति में द्विभुज यक्षयक्षी और दो कायोत्सर्ग जिन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । मन्दिर ३२ की दूसरी मूर्ति (१२वीं शती ई०) में भी यक्ष-यक्षी आमूर्तित हैं। चामरधरों की दोनों भुजाओं में चामर प्रदर्शित है। परिकर में तीन जिन एवं ६ उड्डीयमान मालाधर चित्रित हैं। देवगढ़ में दसवीं-ग्यारहवीं शती ई० की लांछन युक्त नौ चन्द्रप्रभ मूर्तियां हैं (चित्र १५,१६)। छह उदाहरणों में चन्द्रप्रभ ध्यानमुद्रा में आसीन हैं। सात उदाहरणों में यक्ष-यक्षी उत्कीर्ण हैं। चार उदाहरणों में द्विभुज यक्ष-यक्षी सामान्य लक्षणों वाले हैं। मन्दिर १ की मूर्ति (११वीं शती ई०) में द्विभुज यक्ष गोमुख है। स्मरणीय है कि गोमुख ऋषभनाथ के यक्ष हैं । मन्दिर २१ की मूर्ति (११वीं शती ई०) में यक्ष-यक्षी चतुर्भुज हैं। मन्दिर २० की मूर्ति (११वीं शती ई०) में सिंहासन के दोनों छोरों पर चतुर्भज यक्षी ही आमूर्तित है। परिकर में चार जिन आकृतियां भी उत्कीर्ण हैं। मन्दिर ४ और १२ (प्रदक्षिणा पथ) को मूर्तियों में भी चार छोटी जिन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। मन्दिर २१ की मूर्ति में चन्द्रप्रभ जटाओं से यक्त हैं। परिकर में आठ जिन आकृतियां भी हैं । मन्दिर १ और १२ (चहारदीवारी) की मूर्तियों में क्रमशः ६ और ४ जिन आकृतियां बनी हैं। विश्लेषण-ज्ञातव्य है कि चन्द्रप्रभ की सर्वाधिक मूर्तियां उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश में ही उत्कीर्ण हुई। इस क्षेत्र में शशि लांछन का चित्रण नियमित था। यक्ष-यक्षी का चित्रण भी लोकप्रिय था। कुछ उदाहरणों में अपारम्परिक किन्तु स्वतन्त्र लक्षणोंवाले यक्ष-यक्षी निरूपित हैं । १ त्रिश०पु०च० ३.६.४९ २ हस्तीमल, पू०नि०, पृ० ८५-८७ ३ अग्रवाल, आर० सी०, 'न्यूली डिस्कवर्ड स्कल्पचर्स फ्राम विदिशा', ज०ओ०ई०, खं० १८, अं० ३, पृ० २५३ ४ इण्डियन आकिअलाजी–ए रिव्यू, १९५७-५८, पृ० ७६ ५ चन्द्र, प्रमोद, पू०नि०, पृ० १४२-४३ ६ जे ८८०, जे ८८१, जी ११३ ७ मन्दिर १, १२, साहू जैन संग्रहालय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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