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________________ जिन - प्रतिमाविज्ञान ] मूर्तियां सुपाखँ का लांछन स्वस्तिक है ।" शिल्प में सुपाखँ का लांछन कुछ उदाहरणों में ही उत्कीर्ण है । मूर्तियों में सुपार्श्व की पहचान मुख्यतः एक, पांच या नौ सर्पफणों के शिरस्त्राण के आधार पर की गई है । " जैन ग्रन्थों में उल्लेख है कि गर्भकाल में सुपार्श्व की माता ने स्वप्न में अपने को एक, पांच और नौ फणों वाले सर्पों को शय्या पर सोते देखा था । वास्तुविद्या के अनुसार सुपाखं तीन या पांच सर्प फणों के छत्र से शोभित होंगे। 3 एक या नौ सर्पफणों के छत्रों वाली सुपार्श्व की स्वतन्त्र मूर्तियां नहीं मिली हैं। पर दिगंबर स्थलों की कुछ जिन मूर्तियों के परिकर में एक या नौ सर्प फणों के छत्रों वाली सुपार्श्व की लघु मूर्तियां अवश्य उत्कीर्ण हैं । स्वतन्त्र मूर्तियों में सुपार्श्व सदैव पांच सर्पफणों के छत्र से युक्त हैं । सर्प की कुण्डलियां सामान्यतः चरणों तक प्रसारित हैं । सुपार्श्व के यक्ष-यक्षी मातंग और शांता हैं । दिगंबर परम्परा में यक्षी का नाम काली (या कालिका) है । दसवीं शती ई० से पूर्व की सुपार्श्व मूर्ति नहीं मिली है । सुपार्श्व की मूर्तियों में यक्ष-यक्षी का चित्रण ग्यारहवीं शती ई० में प्रारम्भ हुआ । मूर्तियों में पारम्परिक यक्ष-यक्षी का चित्रण अनुपलब्ध है । पर कुछ उदाहरणों में सुपार्श्व से सम्बद्ध करने के उद्देश्य से यक्ष-यक्षी के सिरों पर सर्पफणों के छत्र प्रदर्शित किये गये हैं । १०१ गुजरात - राजस्थान - १०८५ ई० की ध्यानमुद्रा में बनी एक मूर्ति कुम्भारिया के महावीर मन्दिर की देवकुलिका ७ में है । मूलनायक के दोनों ओर दो कायोत्सर्गं और दो ध्यानस्थ जिन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । यक्ष यक्षी सर्वानुभूति एवं अम्बिका हैं । ग्यारहवीं शती ई० की कुछ मूर्तियां ओसिया की देवकुलिकाओं पर भी हैं । कुम्भारिया के नेमिनाथ मन्दिर के गूढ़मण्डप में ११५७ ई० की एक कायोत्सर्ग मूर्ति है । इसमें पांच सर्पफणों के छत्र और स्वस्तिक लांछन दोनों उत्कीर्ण हैं, पर पारम्परिक यक्ष-यक्षी के स्थान पर सर्वानुभूति एवं अम्बिका निरूपित हैं । यक्ष-यक्षी के बाद दोनों ओर महाविद्या, रोहिणी और वैरोट्या की चतुर्भुज मूर्तियां हैं। परिकर में सरस्वती, प्रज्ञप्ति, वज्रांकुशी, सर्वास्त्रमहाज्वाला एवं शृंखला की भी मूर्तियां हैं । कुम्भारिया के पार्श्वनाथ मन्दिर की देवकुलिका ७ की मूर्ति (१२०२ ई०) में पांच सर्पफणों के छत्र और साथ ही लेख में सुपार्श्व का नाम भी उत्कीर्ण हैं । बारहवीं शती ई० की एक ध्यानस्थ मूर्ति विमलवसही की देवकुलिका १९ में है । सुपार्श्व के यक्ष-यक्षो के रूप में सर्वानुभूति और पद्मावती निरूपित हैं। पांच सर्पफणों के छत्र एवं स्वस्तिक लांछन से युक्त बारहवीं शती ई० की एक मूर्ति बड़ौदा संग्रहालय में है । दो मूर्तियां (१२ वीं शती ई०) राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली (एल ५५ - ११ ) एवं राजपूताना संग्रहालय, अजमेर (५६) में भी हैं । विश्लेषण - इस प्रकार स्पष्ट है कि गुजरात एवं राजस्थान से ग्यारहवीं शती ई० के पूर्व की सुपार्श्व मूर्तियां नहीं मिली हैं । इस क्षेत्र में सुपार्श्व के साथ पांच सपंफणों के छत्र का नियमित चित्रण हुआ है । साथ ही लेखों में सुपार्श्व के नामोल्लेख की परम्परा भी लोकप्रिय थी । कुछ उदाहरणों में स्वस्तिक लांछन भी उत्कीर्ण है । यक्ष-यक्षी सदैव सर्वानुभूति एवं अम्बिका ही हैं। केवल एक मूर्ति में पार्श्वनाथ की यक्षी पद्मावती आमूर्तित है । १ त्रि००पु०च० के अनुसार सुपार्श्व जन्म के समय स्वस्तिक चिह्न से युक्त थे । तिलोयपण्णत्त में सुपा का लांछन नन्द्यावतं बताया गया है । २ एकः पंच नव च फणाः, सुपार्श्वे सप्तमे जिने । भट्टाचार्य, बी० सी०, वि जैन आइकानोग्राफी, लाहौर, १९३९, पृ० ६० । ३ त्रिपंचफणः सुपाखंः पार्श्वः सप्तनवस्तथा । वास्तुविद्या २२.२७ ४ शाह, यू०पी०, 'जैन स्कल्पचर्स इन दि बड़ौदा म्यूजियम', बु०ब०म्यू०, खं० १, भाग २, पृ० २९-३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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