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________________ १०० [ जैन प्रतिमाविज्ञान उड़ीसा में बारभुजी एवं त्रिशूल गुफाओं में दो ध्यानस्थ मूर्तियां हैं ।' दोनों उदाहरणों में क्रौंच पक्षी की पहचान निश्चित नहीं है. पर मतियों के पारम्परिक क्रम में उत्कीर्ण होने के आधार पर उनकी सुमति से पहचान की गई है। (६) पद्मप्रभ जीवनवृत्त पद्मप्रभ वर्तमान अवसर्पिणी के छठे जिन हैं। कौशाम्बी के शासक धर (या धरण) इनके पिता और सुसीमा इनकी माता थीं। जैन परम्परा में उल्लेख है कि गर्भकाल में माता को पद्म की शय्या पर सोने की इच्छा हई थी तथा नवजात बालक के शरीर की प्रभा भी पद्म के समान थी, इसी कारण बालक का नाम पद्मप्रभ रखा गया। राजपद के उपभोग के बाद पद्मप्रभ ने दीक्षा ली और छह माह की तपस्या के बाद कौशाम्बी के सहस्राम्न वन में प्रियंगु (या वट) वृक्ष के नीचे कैवल्य प्राप्त किया। सम्मेद शिखर पर इन्हें निर्वाण प्राप्त हुआ। मूर्तियां पद्मप्रभ का लांछन पद्म है और यक्ष-यक्षी कुसुम एवं अच्युता (या श्यामा या मानसी) हैं। दिगंबर परम्परा में यक्षी का नाम मनोवेगा है। मूर्त अंकनों में पद्मप्रभ के पारम्परिक यक्ष-यक्षी कभी निरूपित नहीं हुए। दसवीं शती ई० से पहले की पद्मप्रभ की एक भी मूर्ति नहीं मिली है। उत्तरप्रदेश-मध्यप्रदेश के क्षेत्र में पद्मप्रभ की मूर्तियां केवल खजुराहो, छतरपुर, देवगढ़, नरवर एवं ग्वालियर से ही मिली हैं। दसवीं शती ई० की एक विशाल पद्मप्रभ मूर्ति खजुराहो के पार्श्वनाथ मन्दिर के मण्डप में सुरक्षित है। पद्मप्रभ ध्यानमुद्रा में विराजमान हैं और उनकी पीठिका पर चतुर्भुज यक्ष-यक्षी एवं कायोत्सर्ग-मुद्रा में दो जिन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । परिकर में वीणावादन करती सरस्वती की भी दो मूर्तियां हैं। साथ ही कई छोटी जिन मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं । ग्वालियर से मिली मूर्ति (१०वीं-११वीं शती ई०) ध्यानमुद्रा में है और भारतीय संग्रहालय, कलकत्ता में संगृहीत है।" देवगढ़ के मन्दिर १ से मिली मूर्ति कायोत्सर्ग-मुद्रा में और ११ वीं शती ई० की है । १११४ ई० की एक कायोत्सर्ग मूर्ति ऊर्दमऊ (म० प्र०) के मन्दिर में है। छतरपुर से मिली कायोत्सर्ग मूर्ति (११४९ ई०) राज्य संग्रहालय, लखनऊ (०.१२२) में हैं। इसमें मूलनायक के स्कन्धों पर जटाएं भी प्रदर्शित हैं। कुम्मारिया के पार्श्वनाथ मन्दिर की देवकुलिका ६ की मूर्ति (१२०२ ई०) के लेख में पद्मप्रम का नाम उत्कीर्ण है । उड़ीसा की बारभुजी एवं त्रिशूल गुफाओं में ध्यानस्थ पद्मप्रभ की दो मू तयां हैं। बारभुजी गुफा की मूर्ति में चतुर्भुज यक्षी भी आमूर्तित है। (७) सुपार्श्वनाथ जीवनवृत्त सुपार्श्वनाथ इस अवसर्पिणी के सातवें जिन हैं। वाराणसी के शासक प्रतिष्ठ (या सुप्रतिष्ठ) उनके पिता और पृथ्वी उनकी माता थीं। राजपद के उपभोग के बाद सुपावं ने दीक्षा ली और नौ माह की तपस्या के बाद वाराणसी के सहस्राम्रवन में सिरीश (या प्रियंगु) वृक्ष के नीचे कैवल्य प्राप्त किया। इनकी निर्वाण-स्थली सम्मेद शिखर है। १ मित्रा, देवला, 'शासन देवीज इन दि खण्डगिरि केव्स', ज०ए०सी०, खं० १, अं० २, पृ० १३०; कुरेशी, मुहम्मद हमीद, पू०नि०, पृ० २८१ २ त्रिश०पु०च० ३.४ ३८, ५१ ३ हस्तीमल, पू०नि०, पृ० ७८-८१ ४ जे०क०स्था०, खं० ३, पृ० ६०४ ५ रामचन्द्रन, टी० एन०, पू०नि०, पृ० ६२ ६ जैन, कामताप्रसाद, 'दि स्टैचू ऑव पद्मप्रभ ऐट ऊर्दमऊ', वा०अहि०, खं० १३, अं० ९, पृ०१९१-९२ ७ हस्तीमल, पू०नि०, पृ० ८२-८४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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