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जिन-प्रतिमाविज्ञान ]
छोटी जिन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। सहेठ-महेठ की दसवीं शती ई० की एक दुर्लभ मूर्ति (जे ८५७) में मूलनायक को उन्नत वक्षःस्थल और अंतःप्रविष्ट उदर के साथ निरूपित किया गया है। इस दुर्लभ उदाहरण में सम्भवतः एक योगी की ऊध्वं श्वांस प्रक्रिया को दरशाया गया है।
पुरातत्व संग्रहालय, मथरा में आठवीं से ग्यारहवीं शती ई० के मध्य की ऋषभ की चार मूर्तियां हैं। सभी में वृषभ लांछन और जटाएं प्रदर्शित हैं,पर यक्ष-यक्षी केवल दो उदाहरणों में उत्कीर्ण हैं । एक मूर्ति (बी २१,१० वीं शतीई०) में यक्षी चक्रेश्वरी है; और यक्ष का मुखभाग खण्डित है। सिंहासन के नीचे एक पंक्ति में कायोत्सर्ग-मुद्रा में सात जिनमूर्तियां उत्कीर्ण हैं । परिकर में भी आठ जिन आकृतियां सुरक्षित हैं। ग्यारहवीं शती ई० की एक मूर्ति (१६.१२०७) में द्विभुज यक्ष-यक्षी सर्वानुभूति एवं अम्बिका हैं। परम्परा विरुद्ध यक्ष बायीं ओर और यक्षी दाहिनी ओर निरूपित हैं । मूलनायक के पावों में केतु को छोड़कर आठ ग्रहों की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं।।
खजुराहो में दसवीं से बारहवीं शती ई० के मध्य की ५० से अधिक मूर्तियां हैं। इनमें से केवल ३६ मूर्तियां अध्ययन की दृष्टि से सुरक्षित हैं। लखनऊ संग्रहालय (१६.०.१७८) की एक मूर्ति की भांति खजुराहो के जाडिन संग्रहालय की एक मूर्ति (१६५१) में भी पारम्परिक यक्ष-यक्षी के साथ ही लक्ष्मी एवं अम्बिका निरूपित हैं जो ऋषम की विशेष प्रतिष्ठा की सूचक हैं। ऋषभ केवल पांच ही उदाहरणों में कायोत्सर्ग में खड़े हैं। छह उदाहरणों में ऋषभ की केशरचना पृष्ठभाग में जटा के रूप में संवारी गई है। दो उदाहरणों में सिंहासन के सूचक सिंह अनुपस्थित हैं। एक उदाहरण में ऋषभ की जटाएं और एक अन्य में (मन्दिर ८) वृषभ लांछन नहीं उत्कीर्ण हैं। चामरधरों की एक भुजा में कभी-कभी फल या सनाल पद्म भी प्रदर्शित हैं। तीन उदाहरणों में पाश्र्ववर्ती चामरधरों के स्थान पर पांच या सात सपंफणों के छत्र से शोभित सुपार्श्व एवं पार्श्व की कायोत्सर्ग मूर्तियां बनी हैं।
पार्श्वनाथ मन्दिर के गर्भगृह की ऋषभ मूर्ति में यक्ष-यक्षी गोमुख एवं चक्रेश्वरी हैं । पार्श्वनाथ मन्दिर की मूर्ति में पारम्परिक यक्ष-यक्षी के उत्कीर्णन के पश्चात् खजुराहो की अन्य मूर्तियों में यक्ष-यक्षी युगल का अभाव या अपारंपरिक यक्ष-यक्षी के चित्रण इस बात के सूचक हैं कि कलाकार परंपरा के प्रति पूरी तरह आस्थावान नहीं थे। कई उदाहरणों में गरुडवाहना यक्षी चक्रेश्वरी है पर यक्ष वृषानन नहीं है। पार्श्वनाथ मन्दिर के गर्भगृह की मूर्ति में मूलनायक के दोनों ओर स्वतन्त्र सिंहासनों पर पांच एवं सात सर्पफणों से आच्छादित सुपार्श्व एवं पावं की कायोत्सर्ग मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । परिकर में ३३ लघु जिन मूर्तियां भी हैं । पार्श्वनाथ मन्दिर के गर्भगृह के प्रदक्षिणा पथ में भी ऋषभ की एक मूर्ति (१०वीं शतोई०) सुरक्षित है। मूर्ति के परिकर में २३ जिन आकृतियां उत्कीर्ण हैं जिनमें से दो के सिरों पर पांच सर्पफणों के छत्र हैं । स्थानीय संग्रहालयों (के ६२, १६८२) की दो मूर्तियों (११ वीं शती ई०) के परिकर में क्रमशः २४ और ५२ छोटी जिन आकृतियां उत्कीर्ण हैं। मन्दिर १७ की एक मूर्ति (११ वीं शती ई०) के परिकर में तीन जिनों एवं बाहुबली की आकृतियां बनी हैं। पांच उदाहरणों में ऋषभ के पार्यों में सात सपंफणों के शिरस्त्राण से युक्त पाश्र्वनाथ की कायोत्सर्ग मूर्तियां हैं । जार्डिन संग्रहालय की एक मूर्ति (१६१२) में पावं एवं सुपार्श्व की मूर्तियां हैं । चार उदाहरणों में आसन के नीचे नवग्रहों की आकृतियां उत्कीर्ण है।'
देवगढ़ में नवीं से बारहवीं शती ई० के मध्य की ६० से अधिक ऋषभ मूर्तियां हैं (चित्र ८)। अधिकांश उदाहरणों में ऋषभ कायोत्सर्ग में निरूपित हैं। लटकती जटाओं से शोभित ऋषभ के साथ वृषभ लांछन, और अधिकांश उदाहरणों में यक्ष-यक्षी प्रदर्शित हैं। कुछ उदाहरणों में ऋषभ जटाजूट से अलंकृत हैं, और कुछ में उनके केश पीछे की ओर संवारे गए हैं। अधिकांश उदाहरणों में यक्ष-यक्षी गोमुख एवं चक्रेश्वरी हैं । चार उदाहरणों में यक्षी अम्बिका है और
१ ये मूर्तियां मन्दिर १, २७, जाडिन संग्रहालय एवं पुरातात्विक संग्रहालय (१६८२) में हैं। २ स्कन्धों पर सामान्यतः २, ३ या ५ लट प्रदर्शित हैं। ३ मन्दिर १२, १३, १६ एवं २१
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