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________________ [जैन प्रतिमाविज्ञान यक्ष भी वृषानन नहीं है।' आठ उदाहरणों में यक्ष-यक्षी सामान्य लक्षणों वाले हैं जिनके हाथों में कलश, पद्म एवं पुस्तक हैं तथा एक अभयमुद्रा में प्रदर्शित है। चामरधरों की एक भुजा में सामान्यतः पद्म (या फल) है। नवीं से ग्यारहवीं शती ई० के मध्य की २५ विशाल कायोत्सर्ग मूर्तियों में ऋषभ साधारण पीठिका या पद्मासन पर खड़े हैं और उनकी लम्बी जटाएं भुजाओं तक लटक रही हैं। इन मूर्तियों में उष्णीष, लांछन एवं यक्ष-यक्षी नहीं प्रदर्शित हैं। देवगढ़ में छत्रत्रयी के दोनों ओर अशोक वृक्ष की पत्तियों एवं कलश धारण करनेवाली दो पुरुष आकृतियों का उत्कीर्णन विशेष लोकप्रिय था। परिकर में कभी-कभी दो के स्थान पर चार गज आकृतियां उत्कीर्ण हैं। उड्डीयमान स्त्री आकृतियों के एक हाथ में कभी-कभी चामर एवं घट भी प्रदर्शित है। मन्दिर १२ की एक मूर्ति के सिंहासन पर चतुर्भुज लक्ष्मी की दो मूर्तियां हैं। दो मूर्तियों में सिंहासन पर पुस्तक से युक्त दो जैन आचार्यों को शास्त्रार्थ की मुद्रा में है। मन्दिर ४ की एक मूर्ति (११ वीं शती ई०) में यक्ष के स्थान पर अम्बिका और दूसरे छोर पर चक्रेश्वरी निरूपित है। सात मूर्तियों के परिकर में २३ लघु जिन आकृतियां उत्कीर्ण हैं। दो मतियों के जिन मूर्तियां हैं। गोलकोट एवं बूढ़ी चन्देरी की वृषभ लांछनयुक्त मूर्तियों (१० वीं-११ वीं शती ई०) में गोमुख-चक्रेश्वरी निरूपित एक मूर्ति में जटाओं से शोभित ऋषभ के दोनों ओर सर्पफणों से युक्त कायोत्सर्ग जिन आमूर्तित हैं । त्रिछत्र के ऊपर आमलक एवं चतुर्भुज दुन्दुभिवादक बने हैं।' धुबेला संग्रहालय की एक मूर्ति (३८) में सिंहासन के मध्य में धर्मचक्र के स्थान पर चक्रेश्वरी है। शहडोल की एक विशाल मूर्ति (११ वीं शती ई०) के परिकर में १०६ लघु जिन आकृतियां बनी हैं। सिंहासन के मध्य में धर्मचक्र के स्थान पर चतुर्भुज शान्तिदेवी की मूर्ति है। गुना की एक मूर्ति (११ वीं शती ई०) में ऋषभ जटाजूट से शोभित हैं ।१ ऋषभ के साथ सर्वानुभूति एवं अम्बिका अंकित हैं। विश्लेषण-उत्तरप्रदेश-मध्यप्रदेश में ऋषभ की मूर्तियों में सर्वाधिक विकास परिलक्षित होता है। इस क्षेत्र में जटाओं के साथ ही वृषभ लांछन और यक्ष-यक्षी का नियमित चित्रण हुआ है। लांछन का चित्रण सर्वप्रथम इसी क्षेत्र में (ल० ८वीं शती ई०) प्रारम्भ हुआ।१२ अधिकांश उदाहरणों में यक्ष-यक्षी गोमुख और चक्रेश्वरी हैं। सर्वानुभूति एवं अम्बिका और सामान्य लक्षणों वाले यक्ष-यक्षी केवल कुछ ही उदाहरणों में निरूपित हैं। अष्ट-प्रातिहार्यों एवं परिकर में लघु जिन-मूर्तियों का उत्कीर्णन भी लोकप्रिय था। परिकर में सामान्यतः २३ या २४ लघु जिन आकृतियां उत्कीर्ण हैं। कुछ उदाहरणों में नवग्रहों की भी आकृतियां बनी हैं। ऋषभ के साथ परिकर में शान्तिदेवी, जैन आचार्यों, बाहुबली, पद्मावती एवं लक्ष्मी की भी मूर्तियां उत्कीर्ण हैं, जिनके चित्रण अन्यत्र दुर्लभ हैं। बिहार-उड़ीसा-बंगाल-ल. आठवीं शती ई० की ऋषभ को एक ध्यानस्थ मूर्ति राजगिर की वैभार पहाड़ी पर है ।१३ जटामुकुट एवं केशवल्लरियों से शोभित मूर्ति की पीठिका के धर्मचक्र के दोनों ओर वृषभ लांछन की दो मतियां १ केवल मन्दिर २१ को एक मूर्ति में यक्षी अम्बिका है पर यक्ष गोमुख है। २ मन्दिर २, ८, २५, २६, २७ एवं साहू जैन संग्रहालय । ३ ऐसी मूर्तियां मन्दिर १२ की चहारदीवारी पर सुरक्षित हैं। ४ लक्ष्मी के करों में अभयमुद्रा, पद्म, पद्म एवं कलश प्रदर्शित हैं। ५ मन्दिर ४ एवं मन्दिर १२ की चहारदीवारी ६ मन्दिर ४, ८, १२, २४, २५ एवं साहू जैन संग्रहालय ७ मन्दिर १२ की चहारदीवारी एवं मन्दिर १६ ८ अन, क्लाज, 'जैन तीर्थज इन मध्य देश, दुदही', जनयुग, वर्ष १, नवम्बर १९५८, पृ. २९-३२ ९ अमेरिकन इन्स्टिट्यूट ऑव इण्डियन स्टडीज-चित्र संग्रह ५४.९८ १० वही, ए ७.५२ ११ गर्ग, आर०एस०, 'मालबा के जैन प्राच्यावशेष', जै०सि०भा०, खं० २४, अं० १, पृ० ५८ १२ राज्य संग्रहालय, लखनऊ-जे ७८ १३ आ०स०६०ऐ०रि०,१९२५-२६, फलक ५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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