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________________ ८४ [ जैन प्रतिमाविज्ञान दृष्टि से जिन-मूर्तियां पूर्णतः विकसित हो चुकी थीं। पूर्ण विकसित जिन-मूर्तियों में लांछनों, यक्ष-यक्षी युगलों एवं अष्टप्रातिहार्यों के साथ ही परिकर में दूसरी छोटी जिन-मूर्तियां, नवग्रह, गज, महाविद्याएं एवं अन्य आकृतियां भी अंकित हैं (चित्र ७. ९.१५. २०)। विभिन्न क्षेत्रों की जिन-मूर्तियों की कुछ अपनी विशिष्टताएं रही हैं. जिनकी अति संक्षेप में चर्चा यहां अपेक्षित है। . . गुजरात-राजस्थान-सिंहासन के मध्य में चतुर्भुज शान्तिदेवी (या आदिशक्ति) एवं गजों और मृगों के चित्रण गुजरात एवं राजस्थान की श्वेताम्बर जिन मूर्तियों की क्षेत्रीय विशेषताएं थीं। परिकर में हाथ जोड़े या कलश लिये गोमुख आकृतियों, वीणा एवं वेणुवादन करती दो आकृतियों तथा त्रिछत्र के ऊपर कलश और नमस्कार-मुद्रा में एक आकृति के अंकन भी गुजरात एवं राजस्थान में ही लोकप्रिय थे (चित्र २०)। मूलनायक के पावों में पांच या सात सपंफणों के छत्रों वाली या लांछन विहीन दो कायोत्सर्ग जिन मूर्तियों का उत्कीर्णन भी इस क्षेत्र की विशेषता थी। दिलवाड़ा एवं कम्मारिया की कुछ जिन-मूर्तियों के परिकर में महाविद्याएं भी अंकित हैं। इस क्षेत्र में ऋषम और पाश्व की सर्वाधिक मतियां उत्कीर्ण हई। नेमि और महावीर की मूर्तियों की संख्या अन्य क्षेत्रों की तुलना में काफी कम है। इस क्षेत्र में जिनों के जीवनदृश्यों के चित्रण भी विशेष लोकप्रिय थे जिनमें जिनों के पंचकल्याणकों (च्यवन, जन्म, दीक्षा, कैवल्य, निर्वाण) एवं कळ अन्य विशिष्ट घटनाओं को उत्कीर्ण किया गया है। जीवनदृश्यों के मुख्य उदाहरण ओसिया, कुम्भारिया एवं दिलवाड़ा में हैं जो ऋषभ, शान्ति, मुनिसुव्रत, नेमि, पार्श्व एवं महावीर से संबद्ध हैं (चित्र १३,१४,२२,२१,४०,४१) । उत्तरप्रदेश-मध्यप्रदेश-उत्तर प्रदेश की कुछ नेमि मूर्तियों (देवगढ़ एवं राज्य संग्रहालय, लखनऊ) में बलराम एवं कृष्ण आमतित हैं (चित्र २७, २८)। इस क्षेत्र की पार्श्वनाथ मूर्तियों में कभी-कभी पार्श्ववर्ती चामरधर सेवक सर्पफणों से युक्त हैं और उनके हाथों में लम्बा छत्र प्रदर्शित है। जिन-मूर्तियों के परिकर में बाहुबली, जीवन्तस्वामी, क्षेत्रपाल, सरस्वती, लक्ष्मी आदि के चित्रण विशेष लोकप्रिय थे। बिहार-उड़ीसा-बंगाल-इस क्षेत्र की जिन मूर्तियों में सिंहासन, धर्मचक्र, गजों एवं दुन्दुभिवादक के नियमित चित्रण नहीं हुए हैं । सिंहासन के छोरों पर यक्ष-यक्षी का अंकन भी नियमित नहीं था। १ पावं की मूर्तियों में शीर्षभाग के सर्पफणों के कारण सामान्यतः त्रिछत्र एवं दुन्दुभिवादक की आकृतियां नहीं उत्कीर्ण हुई। २ कुछ उदाहरणों में परिकर में २३ या २४ छोटी जिन मूर्तियां बनी हैं। परिकर को छोटी जिन-मूर्तियां साधारणतः लांछनविहीन हैं। पर बंगाल में परिकर की छोटी जिन-मूर्तियों के साथ लांछनों का प्रदर्शन लोकप्रिय था। ३ गूजरात एवं राजस्थान की श्वेताम्बर जिन-मूर्तियों में अन्य क्षेत्रों के विपरीत नवग्रहों के केवल मस्तक ही उत्कीर्ण हैं। ४ कलश धारण करने वाली गज आकृतियों की पीठ पर सामान्यतः एक या दो पुरुष आकृतियां बैठी हैं। ५ चतुर्भुज शान्तिदेवी के करों में सामान्यतः अभय-(या वरद-) मुद्रा, पद्म, पद्म (या पुस्तक) एवं फल प्रदर्शित हैं। ६ आदिशक्तिजिनदृष्टा आसने गर्भ संस्थिता । सहजा कुलजाऽधोना पद्महस्ता वरप्रदा ॥ अर्कमानं विधातव्यमुपाङ्ग सहितं भवेत् । देव्याधोगहें मृगयुग्मं धर्मचक्रं सुशोभनम् ॥ द्वौ गजौ वामदक्षिणे दशाङ्गलानि विस्तेर । सिंहो रौद्रमहाकायौ जीवत् क्रौधौ च रक्षणे । वास्तुविद्या, जिनपरिकरलक्षण २२.१०-१२ ७ मध्यप्रदेश (ग्यारसपुर एवं खजुराहो) की कुछ दिगम्बर जिन मूर्तियों में भी ये विशेषताएं प्रदर्शित हैं । ८ वास्तुविद्या २२.३३-३९ ९ गुजरात-राजस्थान के बाहर जिनों के जीवनदृश्यों के अंकन दुर्लभ हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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