________________
जिन-प्रतिमाविज्ञान ]
८३
के उत्कीर्णन के स्थान पर पीठिका लेखों में जिनों के नामोल्लेख की परम्परा ही विशेष लोकप्रिय थी। पर ऋषभ, सुपार्श्व एवं पाश्व के साथ क्रमशः जटाएं एवं पांच और सात सर्पफणों के छत्र प्रदर्शित हैं। ल. छठी-सातवीं शती ई० से जिन मतियों में अष्ट-प्रातिहार्यों का नियमित अंकन हुआ है । ये अष्ट-प्रातिहार्य निम्नलिखित हैं : अशोक वृक्ष, देव-पुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, चामर, सिहासन, त्रिछत्र, देवदुन्दुभि एवं भामण्डल ।२ मूर्त अंकनों में अशोक वृक्ष का चित्रण बहत नियमित नहीं था। दिव्य-ध्वनि एवं देवदुन्दुभि में से केवल एक का निरूपण नियमित था।
जयसेन, वसूनन्दि, आशाधर, नेमिचन्द्र, कुमुदचन्द्र आदि दिगम्बर ग्रन्थकारों ने अपने प्रतिष्ठाग्रन्थों में जिन-प्रतिमा का विस्तार से वर्णन किया है। जयसेन के प्रतिष्ठापाठ में जिन-बिम्ब को शान्त, नासाग्रदृष्टि, निर्वस्त्र, ध्याननिमग्न और किंचित नम्र ग्रीव बताया गया है। कायोत्सर्ग-मुद्रा में जिन समभंग में खड़े होते हैं और उनके हाथ लम्बवत् नीचे लटके होते हैं। ध्यानमुद्रा में जिन दोनों पैर मोड़कर (पद्मासन) बैठे होते हैं और उनकी हथेलियां गोद में (बायीं के ऊपर दाहिनी) रखी होती हैं। प्रतिष्ठापाठ में उल्लेख है कि जिन-प्रतिमा केवल उपयुक्त दो आसनों में ही निरूपित होनी चाहिए। वसुनन्दि" एवं आशाधर आदि ने भी जिन-प्रतिमा के उपर्युक्त लक्षणों के ही उल्लेख किये हैं।
उत्तर भारत के विभिन्न पुरातात्विक स्थलों की जिन-मूर्तियों के अध्ययन से हमें ज्ञात होता है कि ऋषभ, पावं. महावीर, नेमि, शान्ति एवं सुपार्श्व इसी क्रम में सर्वाधिक लोकप्रिय थे। ल० नवीं-दसवीं शती ई० तक मृतिविज्ञान की
१ दक्षिण भारत की जिन मूर्तियों में अष्ट-प्रातिहार्यों में से केवल त्रिछत्र, अशोक वृक्ष, चामरधर, उड्डीयमान गन्धर्व, सिंहासन एवं भामण्डल का ही नियमित अंकन हुआ है। सिंहासन के मध्य में धर्मचक्र का उत्कीर्णन भी नियमित
नहीं था। २ अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिदिव्यध्वनिश्चामरमासनं च ।
भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥ हस्तीमल के जैनधर्म का मौलिक इतिहास (भाग १, जयपुर, १९७१, पृ० ३३) से उद्धृत स्थापयेदर्हतां छत्रत्रयाशोक प्रकीर्णकम् । पीठंभामण्डलं भाषां पुष्पवृष्टिं च दुन्दुभिम् ।। स्थिरेतरार्चयोः पादपीठस्याधो यथायथम् । लांछनं दक्षिणे पाचँ यक्षं यक्षी च वामके ॥ प्रतिष्ठासारोद्धार १.७६-७७;
हरिवंशपुराण ३.३१-३८; प्रतिष्ठासारसंग्रह ५.८२-८३ ३ केवल गुजरात-राजस्थान की मूर्तियों में ही दोनों का नियमित अंकन हुआ है । त्रिछत्र के दोनों ओर देवदन्दमि और
परिकर में वीणा एवं वेणवादन करती दिव्य-ध्वनि की सूचक दो आकृतियां उत्कीर्ण हैं। अन्य क्षेत्रों की मतियों में देवदुन्दुभि सामान्यतः त्रिछत्र के समीप उत्कीर्ण है। ४ जैन, बालचन्द्र, 'जैन प्रतिमालक्षण', अनेकान्त, वर्ष १९, अं० ३, पृ० २११ ५ अथ बिम्बं जिनेन्द्रस्य कर्तव्यं लक्षणान्वितम् । ऋज्वायत सुसंस्थानं तरुणाङ्गं दिगम्बरं ॥ श्रीवृक्षभूषितोरस्क जानुप्राप्तकराग्रजं । निजाङ्गलप्रमाणेन साष्टाङ्गलशतायतम् ॥ कक्षादिरोमहीनाङ्ग श्मश्रु लेखाविवजितम् ।
ऊध्वं प्रलम्बकं दत्वा समाप्त्यन्तं च धारयेत् । प्रतिष्ठासारसंग्रह ४.१, २, ४ ६ प्रतिष्ठासारोद्धार १.६२; मानसार ५५.३६-४२; रूपमण्डन ६.३३-३५ ७ दक्षिण भारतीय शिल्प में महावीर एवं पार्श्व सर्वाधिक लोकप्रिय थे । ऋषभ को मूर्तियां तुलनात्मक दृष्टि से नगण्य हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org