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________________ ८५ जिन-प्रतिमाविज्ञान ] अति संक्षेप में पूर्णविकसित मध्ययुगीन जिन मूर्तियों की सामान्य विशेषताएं इस प्रकार थीं। श्रीवत्स से युक्त जिन मूर्तियां कायोत्सर्ग में खड़ी या ध्यानमुद्रा में आसीन हैं। सामान्यतः गुच्छकों के रूप में प्रदर्शित केश रचना उष्णीष के रूप में आबद्ध है। कायोत्सर्ग में खड़े जिनों के लटकते हाथों की हथेलियों में सामान्यतः पद्म अंकित हैं। मूलनायक का पद्मासन रत्न, पुष्प एवं कीर्तिमुख आदि से अलंकृत है। आसन के नीचे सिंहासन के सूचक दो रौद्र सिंह उत्कीर्ण हैं। ये सिंह आकृतियां सामान्यतः एक दूसरे की ओर पीठकर दर्शकों की ओर देखने की मुद्रा में प्रदर्शित हैं। सिंहासन के मध्य में धर्मचक्र उत्कीर्ण है। गुजरात एवं राजस्थान को श्वेताम्बर मूर्तियों में सिंहासन के मध्य में धर्मचक्र के स्थान पर शान्तिदेवी की मूर्ति है। शान्तिदेवी की आकृति के नीचे दो मृगों एवं उपासकों के साथ धर्मचक्र चित्रित है। शान्तिदेवी के दोनों ओर दो गज आकृतियां उत्कीर्ण हैं। धर्मचक्र के समीप या आसन पर जिनों के लांछन उत्कीर्ण हैं। सिंहासन-छोरों पर ललितमुद्रा में यक्ष (दाहिनी) और यक्षी (बायीं) की मूर्तियां निरूपित हैं। यक्ष-यक्षी की अनुपस्थिति में छोरों पर सामान्यतः जिन आकृतियां उत्कीर्ण हैं। जिनों के पाश्चों में चामरधर सेवक आमूर्तित हैं, जिनकी एक भुजा में चामर है और दूसरी भुजा जानु पर रखी है। चामरधरों के समीप नमस्कार-मुद्रा में दो उपासक भी हैं। भामण्डल सामान्यतः ज्यामितीय, पूष्प एवं पद्य अलंकरणों से अलंकृत हैं। जिन के सिर के ऊपर त्रिछत्र हैं जिसके ऊपर दुन्दुभिवादक की अपूर्ण आकृति या केवल दो हाथ प्रदर्शित हैं। कुछ उदाहरणों में त्रिछत्र के समीप अशोक वृक्ष की पत्तियां भी चित्रित हैं। परिकर में दो गज एवं उड्डीयमान मालाधर भी बने हैं। परिकर में दो अन्य मालाधर युगल एवं वाद्यवादन करती आकृतियां भी उत्कीर्ण हैं। मति के छोरों पर गज-व्याल-मकर अलंकार एवं आक्रामक मुद्रा में एक योद्धा अंकित हैं। आगे प्रत्येक जिन का मूर्तिविज्ञानपरक अध्ययन किया जायगा। (१) ऋषभनाथ जीवनवृत्त जैन परम्परा के अनुसार ऋषम मानव समाज के आदि व्यवस्थापक एवं वर्तमान अवसर्पिणी यग के प्रथम जिन हैं । प्रथम जिन होने के कारण ही उन्हें आदिनाथ भी कहा गया। महाराज नामि ऋषभ के पिता और मरुदेवी उनकी माता हैं। ऋषभ के गर्भधारण की रात्रि में मरुदेवी ने १४ मांगलिक स्वप्न देखे थे। दिगम्बर परम्परा में इन स्वप्नों की संख्या १६ बताई गई है। उल्लेखनीय है कि अन्य जिनों की माताओं ने भो गर्मधारण की रात्रि में इन्हीं शुभ स्वप्नों को देखा था। किन्तु अन्य जिनों की माताओं ने स्वप्न में जहां सबसे पहले गज देखा, वहां ऋषभ की माता ने सबसे पहले वृषभ का दर्शन किया। प्रथम स्वप्न के रूप में वृषभ का दर्शन ऋषम के नामकरण एवं लांछन-निर्धारण की दृष्टि से १ वास्तुविद्या २२.१२ २ वास्तुविद्या २२.१४; प्रतिष्ठासारोद्धार १.७७ ३ दूसरी भुजा में कभी-कभी फल या पुष्प या घट भी प्रदर्शित है। ४ गज की सुंड में घट या पुष्प प्रदर्शित है। ५ अर्चा वामे यक्षिण्या यक्षो दक्षिणे चतुर्दश । स्तम्भिका मृणालयुक्तं मकरंसिरूपकैः ॥ वास्तुविद्या २२.१४ ६ ऋषभ एवं अन्य जिनों के नामों के साथ 'नाथ' या 'देव' शब्द का प्रयोग किया गया है जो उनके प्रति भक्ति एवं सम्मान का सूचक है। ७ १४ शुभ स्वप्न निम्नलिखित हैं-गज, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी (या श्री), पुष्पहार, चन्द्र, सूर्य, ध्वज-दण्ड, पूर्णकुम्भ, पद्मसरोवर, क्षीरसमुद्र, देवविमान, रत्नराशि और निर्धूम अग्नि । कल्पसूत्र ३३ ८ दिगम्बर परम्परा में ध्वज-दण्ड के स्थान पर नागेन्द्र भवन का उल्लेख है। साथ हो मत्स्य-युगल एवं सिंहासन को सम्मिलित कर शुभ स्वप्नों की संख्या १६ बताई गई है-हरिवंशपुराण ८.५८-७४;महापुराण(आदिपुराण)१२.१०१-१२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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