________________
-१४ : महावीर निर्वाणभूमि पावा एक विमर्श
निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि जिनप्रभसूरि ने सभी तीर्थों का भ्रमण किया था और उन्होंने तीर्थों का वर्णन भौगोलिक स्थिति के क्रम से किया है । वे . कौशाम्बी और अयोध्या ( १२वाँ १३वाँ) का वर्णन करने के पश्चात् ही अपापा (पावापुरी) का वर्णन करते हैं । इस प्रकार अयोध्या के पास ही पावा स्थित होना चाहिए ।
1
दिगम्बर साहित्य में पावा सम्बन्धी विवरण की दृष्टि से सर्वप्रथम - जिनसेन कृत 'हरिवंश पुराण" (७८३ ई० ) का क्रम आता है । इसके • अनुसार पावा नगरी में निर्वाण के पश्चात् दीवाली मनायी गई थी । उसी समय से भारत में प्रतिवर्ष उक्ततिथि पर दीवाली उत्सव मनाने की प्रथा चली, जो अज्ञानरूपी अन्धकार से मुक्त होकर केवलज्ञान की ओर आत्मयात्रा है । इसमें श्रेणिकादि राजाओं द्वारा निर्वाण कल्याणक दृश्य के अवलोकन को भी चर्चा है । परन्तु डॉ० गुलाबचन्द्र चौधरी का मन्तव्य है कि यह असावधानीवश की गई एक ऐतिहासिक भूल है । इतिहास प्रमाणित करता है कि श्रेणिक (बिम्बसार ) का देहान्त महावीर के निर्वाण से कम से कम पाँच वर्ष पूर्व हो गया था ।
₹
जटासिंह नन्दि या जटाचार्य कृत 'वरांगचरित' में अन्य तीर्थंकरों के जन्म एवं निर्वाणस्थलों के महावीर की निर्वाणस्थली पावा का वर्णन है—
१. जिनेन्द्रवीरोऽपि विबोध्य संततं समन्ततो भव्यसमूह संततिम् । प्रपद्य पावानगरी गरीयसीं मनोहरोद्यानवने तदीयके ॥ १५ ॥ ज्वलत्प्रदीपपालिकया प्रवृद्धया सुरासुरैदीपितया प्रदीप्तया । तदास्म पावानगरी समंततः प्रदीप्तिनाकाश तला प्रकाशते ॥ १९ ॥ तथैव च श्रेणिक पूर्वभूभुजा, प्रवृत्या कल्याणमहं सहप्रजा । प्रजग्मुरिन्द्राश्च सुरैर्यथा यथं प्रयाचमाना जिनवोधिमर्थिनः ||२०|| हरिवंश पुराण - जिनसेन, सगं ६६ / १९, २०
२. डॉ० चौधरी, गुलाबचन्द्र, भगवान् महावीर को निर्वाणभूमि पावा, प्राचीन पावा, पृ० ४५-७०, गोरखपुर, सन् १९७३ ।
३. कैलासशैले वृषभो महात्मा चंपापुरे चैवहि वासुपूज्यः ।
दशार्हनाथः पुनरुर्जयन्ते पावापुरे श्रीजिनवर्धमानः ॥ ९१ ॥ वरांगचरित - जटासिंह नन्दी
Jain Education International
(सातवीं शताब्दी) वर्णन के प्रसङ्ग में
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org