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४ : महावीर निर्वाणभूमि पावा : एक विमर्श करते हुए दो प्रमुख मार्गों का उल्लेख किया है । एक श्रावस्ती से प्रतिष्ठान तक जो साकेत, कौशाम्बी, विदिशा, गोमदि, उज्जयिनी और महिष्मती नगरों से होकर जाता था। दूसरा प्रमुख मार्ग श्रावस्ती और राजगृह को जोड़ता था। इस मार्ग पर यात्रा करने वाले पहले श्रावस्ती से वैशाली जाते थे फिर वहाँ से दक्षिण की ओर मुड़कर राजगृह पहुँचते थे । इस मार्ग पर कई प्रमुख नगर एवं पड़ाव थे जैसे सेतव्या, कपिलवस्तु, कुशीनगर, पावा, हस्तिगाम, भण्डगाम, वैशाली, पाटलिपुत्र, नालन्दा आदि । इस प्रकार पावा बुद्धकालीन भारत के प्रमुख मार्गों से जुड़ा हुआ था।
महावीर-निर्वाण के पश्चात् जैन धर्मावलम्बियों की दृष्टि में पावा का महत्त्व इतना बढ़ गया था कि विभिन्न स्थलों, विशेषकर धार्मिक स्थानों के नाम पावा रखे जाने लगे। वर्तमान में कई पावा नामक स्थान मिलते हैं, जैसे बुन्देलखण्ड के अन्तर्गत टीकमगढ़ के निकट पपौरा, ललितपुर या झाँसी, उ० प्र० के मध्य 'पवा' या 'पवाजी', इन्दौर (म० प्र०' के निकट पावागिर, बड़ौदा, (गुजरात) के समीप पावागढ़ या पावागिर आदि । इन स्थानों की पुष्टि पं० नाथूराम प्रेमी' ने भी की है। प्रो० के० डी बाजपेयो ने भी गुजरात में पंचमहाल जनपद के पावागिरि एवं चम्पानेर के निकट पावागढ़ का उल्लेख किया है।
परन्तु दुर्भाग्यवश बुद्ध के महापरिनिव्वाण के पश्चात् कालक्रम से मल्लराष्ट्र के मगध साम्राज्य में विलीन हो जाने के कारण शनैः शनैः पावा की महत्ता घटने लगी और अन्ततोगत्वा उसका अस्तित्व ही समाप्त हो गया।
पावा-पतन
उत्तर मौर्यकालीन इतिहास के अनुसार सम्राट अशोक के पौत्र सम्पत्ति के शासनकाल तक पावा का लोप हो चुका था । जैन साहित्य से सूचना प्राप्त होती है कि उसके शासनकाल में मौर्य साम्राज्य की निम्नलिखित भूक्तियाँ थीं:
१. प्रेमी, पं० नाथूराम-जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ४२-४३ २. प्रो० बाजपेयी कृष्णदत्त-लोकेशन आव पावा, पुरातत्व, पृ० ५१
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