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उपसंहार : २०३
कनिंघम का समर्थन किया कुछ ने कार्लाइल का । बहुत से ऐसे भी विद्वान रहें हैं जो पावा के सम्बन्ध में असमंजस की स्थिति में कुछ भी निश्चित न कर तटस्थ भाव से दोनों का मत लेकर आगे बढ़े । उदाहरणस्वरूप फ्यर जहाँ एक स्थान पर पडरौना को पावा मानते हैं (मानुमेण्टल एण्टीक्विटीज एण्ड इंस्क्रिप्शन्स इन द नार्थ वेस्ट प्राविन्सेज़ एण्ड अवध, पृ० २४९) वही दूसरे स्थान प्रर सठियाँव-फाजिल नगर को भी पावा के रूप में मान्यता देते हैं (वही, पृ० २३९) । इसी प्रकार प्राचीन इतिहास और पुरातत्व के विद्वान् वी० सी० लाहा ने ( ज्याग्रफ़ी आव अर्ली बद्धिज्म पृ० ९८ ) में मल्लराष्ट्र का वर्णन करते समय कसया से १२ मील की दूरी पर गण्डक के किनारे स्थित पडरौना को ही पावा माना है लेकिन फुटनोट में फाजिलनगर को पावा कहते हैं और पुस्तक के अन्त में जो नक्शा संलग्न है उसमें फाजिलनगर-सठियाँव को पावा मानते हैं ।
सठियांव को पावा मानने के पीछे प्रबल आधार सठियांव को चैत्यग्राम का अपभ्रंश मानना रहा है परन्तु सठियाँव के पुरातात्त्विक उत्खनन में प्राप्त 'श्रेष्ठिग्राम अग्रहारस्य' की मुद्रा से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रेष्ठिग्राम का अपभ्रंश सठिआँव है, चैत्यग्राम का नहीं। इस प्रकार सठियांव का पावा से कोई सम्बन्ध नहीं है और इसको पावा मानने का आधार सदा के लिए समाप्त हो जाता है ।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के सूत्रों से ज्ञात हआ है कि वैशाली के निकट बुद्धकालीन प्राचीन मार्ग के अवशेष होने का संकेत मिला है और वहाँ पर सर्वेक्षण कर उत्खनन का विचार चल रहा है । इस उत्खनन के फलस्वरूप वैशाली-कुशीनगर मार्ग के सन्दर्भ में निश्चय ही ऐसी पुरातात्त्विक सामग्रियाँ प्राप्त होंगी जिनसे इस विषय पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ेगा।
मेरा भी निश्चित मत है कि यदि पडरौना के प्राचीन टीले के उत्खनन के साथ न्याय किया जाय तो महत्त्वपूर्ण तथ्य आयेंगे।
पावा के गण्डक तट पर स्थित होने के कारण इसकी सम्भावना अधिक है कि पावा सम्बन्धी आधारभूत पुरातात्त्विक प्रमाण उदाहरण स्वरूप मिट्टी के स्तूप, प्राचीन भग्नावशेष गण्डक के प्रवाह में बहकर विलोन हो गये हैं। जिस प्रकार रामग्राम के बुद्धस्तूप पर रामगढ़ ताल एवं अचिरावती ( राप्ती) नदी के कारण विनष्ट हो गये एवं वैशाली के बुद्ध स्तूप को गण्डक नदी ने जलप्लावित कर उसको नींव को क्षतिग्रस्त
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