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२०२ : महावीर निर्वाणभूमि पावा : एक विमर्श
के समान हैं । हमने इसी को आधार मानकर पावा का अन्वेषण करने का प्रयास किया है और इस आधार पर मज्झिमा पावा पडरौना ही सिद्ध होता है ।
परवर्तीकाल में राजगृह के निकट स्थित पावा को महावीर का निर्वाण स्थल मानने की जो विचारधारा प्रचलित हुई उसका कारण यह था कि मुस्लिम आक्रमण के फलस्वरूप पूर्व भारत से जैनों का सम्बन्ध कट गया था और पूर्वी भारत में जैन साधुओं का विहार न होने के कारण धीरे-धीरे जैनधर्म वहाँ से विलुप्त हो गया । जव १४वीं - १५वी शताब्दी में पश्चिम भारत से पुनः जैन व्यापारी और मुनि आये तो उन्हें राजगृह ही एक ऐसा क्षेत्र मिला जिसे वे सुनिश्चित कर सके अतः शेष क्षेत्रों की कल्पना उन्होंने उसी को केन्द्र स्थल मानकर कर ली । प्राचीन जैन साहित्य में तो इन कल्याणक क्षेत्रों के नाम मात्र ही थे । उनमें पहचान के सम्बन्ध में कोई विशेष विवरण नहीं था । अतः उन्होंने कल्पना के आधार पर अन्य तीर्थों के साथ दक्षिणी विहार में इस पावापुरी की कल्पना की और यहाँ मन्दिर आदि बनवाये । यही प्रतीत होता है कि जैन धर्मावलम्बी उस काल की ऐतिहासिक परिस्थितियों से इतने अभिभूत थे कि उन्होंने उत्तर भारत की भौगोलिक स्थिति का सही ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न ही नहीं किया और न तो उन्होंने उत्तरी बिहार में अथवा पूर्वी उत्तर प्रदेश में गण्डक नदी के निकट पावा को खोजने का प्रयास किया ।
परन्तु बौद्ध साहित्य एवं अन्य प्रामाणिक ग्रन्थों में भी नालन्दा स्थित पावापुरी के उल्लेख का अभाव है और न ही वर्तमान पावा से कोई ऐसी M पुरातात्त्विक सामग्री ही मिली जो उसके पक्ष में हो । विशेष बात तो यह है कि चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपनी यात्रा के विवरण में इस पावा का उल्लेख नहीं किया है जबकि वे पावा पडरौना अवश्य आये थे यह कनिंघम द्वारा लिखित 'एंश्येण्ट ज्याग्रफी आव इण्डिया' में ह्व ेनसांग के गंगा प्रदेशीय यात्रा के विवरण के मानचित्र से स्पष्ट है । बुकनन एवं कनिंघम उन महान अनुसंधान कर्त्ताओं में प्रमुख हैं जिन्होंने इस क्षेत्र का ही नहीं अपितु भारत वर्ष के अधिकांश भागों का भ्रमण कर असीम विवेक, धैर्य, साहस एवं सहनशीलता के साथ निरीक्षण, सर्वेक्षण एवं उत्खनन का कार्य किया है । कनिंघम ने भारतवर्ष के अधिकांश प्राचीन महत्त्वपूर्ण स्थलों का अनुसन्धान किया। उन्होंने ही सर्वप्रथम स्पष्ट रूप से घोषित किया कि पडरौना ही वास्तविक पावा है । बाद में कार्लाइल ने फाजिल नगरसठियांव को पावा के रूप में मान्यता दी थी । अधिकांश विद्वानों ने
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