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उपसंहार : २०१ के अतिनिकट ही पावा जैसे राज-नगर की अवस्थिति थी तो महावीर ने अपने निर्वाण के चातुर्मास के अतिरिक्त कोई भी चातुर्मास पावा में नहीं 'किया जबकि उसके निकट नालन्दा में १४ चातुर्मास किये । निष्कर्ष यह है कि राजगृह के उपान्त में किसी ऐसी पावा की अवस्थिति होना जो हस्तिपाल जैसे स्वतन्त्र राजा की राजधानी हो सम्भव नहीं है । वहाँ निर्वाण के समय मल्ल और लिच्छवी गणराज्य के १८ गणराजाओं की उपस्थिति होना भी सम्भव नहीं प्रतीत होता । पुनः अपनी पूर्व राजधानी के निकट महावीर का चातुर्मास हो. वहीं उनका परिनिर्वाण हो और कुणिक जैसा उनका प्रमुख भक्त सम्राट या उसका कोई प्रतिनिधि उपस्थित न हो यह भी मान्य नहीं किया जा सकता । अतः वर्तमान में महावीर के निर्वाण स्थल के रूप में मान्य पावा वस्तुतः महावीर का निर्वाण स्थल नहीं मानी जा सकतो ।
पावा के साथ प्रयुक्त मज्झिमा विशेषण यह सिद्ध करता है कि पावा की स्थिति मध्यदेश में होगी । सम्भवतः वैशाली और श्रावस्ती के मध्य में स्थित होने के कारण ही पावा को मज्झिमा पावा कहा गया है और उसके आस-पास के प्रदेशों को मध्यदेश कहा गया हो । यह सुनिश्चित है कि यदि इसी आधार पर पावा का नामकरण माज्झिमा पावा हुआ हो तो वह पावा पडरौना ही है ।
जैन और बौद्ध साहित्य से यह ज्ञात होता है कि महावीर और बुद्ध प्रायः वैशाली से श्रावस्ती आवागमन करते रहे हैं । वैशाली से श्रावस्ती का यह मार्ग मज्झिमा पावा होकर ही था । पुनः राजगृह से श्रावस्ती के मार्ग में भी यह मज्झिमा पावा अर्थात् पडरौना आता है । दूरी की दृष्टि से भी यह राजगृह और श्रावस्ती अथवा वैशाली और श्रावस्ती के मध्य स्थित है | मल्लराष्ट्र से बुद्ध और महावीर दोनों का ही अत्यन्त लगाव था । इसीलिए इसी मार्ग से वे अपनी चारिकायें करते थे । बुद्ध और महावीर की अनेक यात्रायें इस मार्ग से हुई हैं । सम्भवतः राजगृह से वैशाली होकर श्रावस्ती जाने के लिए महावीर ने प्रस्थान किया हो किन्तु वृद्धावस्था में लम्बे विहार न होने के कारण मध्य में स्थित मज्झिमा पावा में अपना चातुर्मास निश्चित किया हो । यह सुनिश्चित है कि राजगृह- वैशाली श्रावस्ती मार्ग उस युग में आवागमन का प्रमुख राजमार्ग था । वैशाली से श्रावस्ती के मध्य प्राप्त अशोक स्तम्भ इस मार्ग की पह चान कराने के प्रबलतम साक्ष्य हैं वे तत्कालीन मार्ग के मील के पत्थर
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