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पावा मार्ग अनुसंधान : १८७ अर्थात् "महाविहार में स्वामी हरिबल का यह धर्म दान है । मथुरा निवासी दिन शिल्पकार द्वारा यह मूर्ति निर्मित थी।"१ निर्वाण मन्दिर की पूर्वी दीवार से १३' की दूरी पर उसो धरातल पर एक विशाल स्तूप निर्मित है, जिसमें बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात् उनके धातु अवशेषों का आठवाँ भाग, जो कुशीनगर के मल्लों को प्राप्त हुआ था, सुरक्षित है । स्तूप का जीर्णोद्धार समय-समय पर बराबर होता रहा है, ह्वेनसांग के विवरण के अनुसार "मूल स्तूप का निर्माण अशोक ने कराया था, जो उसकी यात्रा के समय जीर्ण हो गया था। उस समय इसकी ऊँचाई लगभग ६१ मोटर थी।"२
पुरातात्त्विक सर्वेक्षण की रिपोर्ट से ज्ञात होता है कि १९१०-११ में उक्त विशाल स्तूप के मध्य भाग में उत्खनन किया गया जिसमें नक्काशीदार ईंटें और राजा जयगप्त के काल के ताँबे के सिक्के प्राप्त हुए। लगभग ४.२७ मीटर गहराई तक उत्खनन के पश्चात् ईंटों का गोलाकार लघु कक्ष प्राप्त हुआ जिसकी लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई, ६४ घन मीटर थी। इसके अन्दर "निदानसुत्त" उत्कीर्णित ताम्रपत्र के ढक्कन से ढंका हुआ एक ताम्र कलश स्थापित था, जिसके अन्त में “परिनिर्वाण चैत्य' अंकित था। साथ ही यह भी उत्कीर्ण था कि इसके जीर्णोद्धार कर्ता हरिबल रहे हैं। ताम्रकलश के अन्दर कुमार गुप्त काल ( पाँचवीं सदी) की रजत मुद्रायें एवं अन्य सामग्रियाँ रक्खी हई थीं। १०.३६ मोटर की गहराई तक उत्खनन के पश्चात् २.८२ मीटर ऊँचा लघु वृत्ताकार स्तूप प्राप्त हुआ; जिसके पश्चिम में ओखा (आला) बना हुआ था एवं जिसके अन्दर ध्यानावस्था-मुद्रा में बैठी हई बद्ध की मति रखी हई थी। स्तूप के अन्दर ( कोयला-राख युक्त ) धातु अवशेष मिले, जिसके बुद्ध के धातु अवशेष होने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है। हरिबल द्वारा स्थापित ताम्रकलश एवं ताम्र-ढक्कन से यह प्रमाणित होता है कि यह स्थान वही कुशीनगर है, जहाँ बुद्ध ने महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था एवं उनके धातु अवशेष के आठवें भाग पर स्तूप का निर्माण हुआ है ।
निर्वाण मन्दिर के लगभग ४०० गज दक्षिण-पश्चिम में स्लेटी रंग के गया प्रस्तर से निर्मित बोधि वृक्ष के नीचे बुद्ध की भूमि स्पर्शमुद्रा में एक
१. डा० पाण्डेय, राजबली, पूर्वोक्त, पृ० १७२ । २. बील, सैमुएल, बुद्धिस्ट रिकार्ड आव वेस्टर्न वर्ड, लन्दन १९०६, पृ० ३१ , । ३. एनुअल रिपोर्ट आर्कियोलाजिकल सर्वे आव इण्डिया, पृ० ६३ ।
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