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पावा मार्ग अनुसंधान : १८५
कनिंघम' के मत में फाह्यान द्वारा 'निर्दिष्ट मोरियों' के अङ्गार स्तूप पिप्पलिवन से कुशीनारा की दूरी व दिशा जो १२ योजन ( ९६ मील) पूर्व बतायी गयी है, सम्यक् नहीं प्रतात होती है । दूसरे चीनी यात्री
नसांग ने पिप्पलिवन से कुशीनारा की स्थिति उत्तर-पूर्व मानी है किन्तु इन्होंने दूरी का कोई उल्लेख नहीं किया है । ह्वेनसांग को हिंसक जानवरों से युक्त सघन जंगलों के मध्य होते हुये पिप्पलिवन से कुशीनारा पहुँचने में काफी समय लगा था । इन जंगलों में जंगली हाथियों, डाकुओं शिकारियों
बहुलता थी । अतः उन्हें टेढ़े-मेढ़े मार्गों द्वारा यात्रा करनी पड़ी होगी । इसी कारण फाह्यान एवं ह्वेनमांग को पिप्पलिवन से कुशीनगर की सही दूरी का अनुमान नहीं हुआ होगा । वास्तव में ( उपधौली ) पिप्पलिवन से कुशीनारा उत्तर-पूर्व में ६५ मील की दूरी पर स्थित है ।
बुद्ध की महापरिनिर्वाणस्थली कुशीनगर बौद्धों के चार प्रमुख धार्मिक केन्द्रों में से एक है और प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय पर्यटक स्थल के रूप में विकसित हो रही है । यहाँ पर महात्मा बुद्ध का प्राचीन निर्वाण मन्दिर, निकटवर्ती स्तूप, बर्मी, चीनी, जापानी तथा अन्य दर्शनीय मंदिर, अनेक बौद्ध विहार एवं उनके अवशेष दर्शनीय स्थल हैं । परिनिर्वाण मन्दिर के दक्षिण - पूर्व में १.६१ किमी० दूरी पर अनिरुद्धवा ग्राम में रामभार स्तुप हैं । बौद्ध साहित्य में इस स्थान को मुकुट बन्धन चैत्य को संज्ञा दी गयी है । रामभार स्तूप के विषय में डी० आर० पाटिल का कथन है कि इस स्तूप के धरातल का व्यास ४७.२४ मीटर तथा स्तूप का व्यास ३४. १४ मीटर है । यहीं पर महात्मा बुद्ध को अन्त्येष्टि क्रिया हुई थी । कुशीनगर के उत्खनन में सैकड़ों मिट्टी की मुद्रायें प्राप्त हुई हैं जिससे इन्होंने सम्भावना व्यक्त की है कि समय-समय पर इसका जीर्णोद्धार होता रहा है। फ्यूरर - का अभिमत है कि कुशीनगर को अधिकांश ईंटें तथा पुरातात्त्विक साक्ष्य लुप्त हो गये हैं । यहाँ के निकटवर्ती ग्रामवासियों ने यहाँ के ईटों को ले जाकर उपयोग किया है । इन सामग्रियों के नष्ट होने का अन्य मुख्य कारण छोटी गंडक में आयी बाढ़ है जो प्राचीन काल में इस भग्नावशेष के निकट से अवश्य बहती रही होगी जैसा कि दोनों मुख्य भग्नावशेषों के बीच
१. कनिंघम, ए०, एंश्येण्ट ज्याग्रफ़ी आव इण्डिया, पृ० ३६३ ।
२. पाटिल, डी० आर०, कुशीनगर पृ० ३१-३२ ।
३. आर्कियोलाजिकल सर्वे आव इण्डिया, मा० ए० इ० ना० वे० प्रा०
नई दिल्ली प्र० सं० १९५७, पृ० २४४ ॥
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