________________
१८२ : महावीर निर्वाणभूमि पावा एक विमर्श
बौद्ध साहित्य, चीनी यात्रियों के यात्रा विवरण तथा बुकनन द्वारा वर्णित सहन कोट के भग्नावशेषों के आधार पर कनिंघम' ने पिप्पलिवन का विस्तृत अनुसंधान किया । उनके अनुसार सहनकोट आमी नदी के चंदौली घाट से, सीधी रेखा में २० मील ( ३२ किमी० ) तथा मार्ग द्वारा २५ मील की दूरी पर स्थित है । वे सहनकट ( सहनकोट ) को पिप्पलिवन अर्थात् मौर्य राजधानी होने की सम्भावना व्यक्त किये हैं । ह्वेनसांग द्वारा निर्दिष्ट दिशा के अनुसार यहाँ से कुशीनगर उत्तर-पर्व में है । फाह्यान ने पिप्पलिवन के स्तूप को अनोमा नदी से चार योजन ( ३२ ) मील दूर पूर्व में स्थित स्वीकार किया है तथा ह्व ेनसांग भी इसे १८० से १९०ली० अर्थात् ३० से ३२ मील पूर्व में स्थित मानते हैं पर पिप्पलिवन ग्राम का नाम निर्देशन नहीं कर पाते हैं । किन्तु सिंहली, बर्मी एवं तिब्बती साहित्य के आधार पर वे पिप्पलिवन के स्तूप ( सहनकोट ) पहुँच जाते हैं । तिब्बती डुलवा में इस स्थान को न्यायग्रोधा ( न्यायग्रोधा ) या पिप्पल वृक्षों का नगर कहा गया है। सिंघली और बर्मी साहित्य में इसे पिप्पलीवन सम्बोधित किया गया हैं । ह्व ेनसांग ने अपने विवरण में इस स्थान को पिप्पल वृक्षों से आच्छादित होने का उल्लेख किया है। कनिघम को उस स्थान के आस पास खण्डहर के रूप में पिप्पलिवन ( राजधानी ) दृष्टिगोचर हुई थी इसी को सहनकोट कहते हैं । उन्होंने स्वीकार किया है कि सहनकोट टीले से बुकनन े को बुद्ध की अनेक मूर्तियाँ प्राप्त हुई थीं, जिसके आधार पर वे सहनकोट के टीले को पिप्पलीवन के रूप में मान्यता प्रदान किये हैं ।
कार्लाइल' के अनुसार उपधौलिया डीह का विस्तार लम्बाई में उत्तर से दक्षिण १ मील और चौड़ाई में पश्चिम से पूर्व लगभग १५०० से १६०० फीट है । इसके पश्चिम भाग में प्राचीन ईटों का एक स्तूप है । मौर्यों ने बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात् चिता की राख लाकर अपनी राजधानी पिप्पलीवन में इस स्तूप का निर्माण करवाया था । कार्लाइल ने इन भग्नावशेषों को प्राचीन पिप्पलीवन के रूप में स्वीकार किया है ।
१. कनिंघम, ए, एंश्येण्ट ज्याग्रफी आव इण्डिया, पृ० ३६१-२ ।
२. माण्टगोमरी मार्टिन, हिस्ट्री, एण्टीक्विटीज, टोपोग्राफी एण्ड स्टैटिस्टिक्स आव ईस्टर्न इण्डिया जिल्द 11, पृ० ३७० ।
३. कार्लाइल, ए० सी०, रिपोर्ट टूर्स इन गोरखपुर सारण गाजीपुर, पृ० ७-८ १३-१५ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org