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पावा मार्ग अनुसंधान : १७३
व्यय हुई थीं । उसके पूर्वी द्वार के दोनों तरफ अशोक स्तम्भ स्थापित किये गये थे । इसका विस्तृत विवरण फाह्यान तथा ह्वेनसांग के यात्रा वर्णन से ज्ञात होता है। ह्वेनसांग के अनुसार इन अशोक स्तम्भों की ऊँचाई २१ मीटर थी, एक के शीर्ष पर चक्र तथा दूसरे पर साँड निर्मित था ।
कनिंघम' ने १८६२-६३ में सहेत - महेत के टीलों का उत्खनन कराकर इसे श्रावस्ती घोषित किया यहाँ उन्हें कौसम्बीकुटी से बोधिसत्त्व की ६' ४" ऊँची मथुरा के लाल पत्थर से निर्मित एक दुर्लभ प्रतिमा प्राप्त हुई थी । पुनः उन्होंने इस क्षेत्र का १८७६ में उत्खनन करवाया था । तत्पश्चात् यहाँ से प्राप्त पुरातात्त्विक साक्ष्य से प्रभावित होकर भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण विभाग द्वारा योजनाबद्ध कार्यक्रम के अनुसार समयसमय पर उत्खनन कार्य होता जा रहा है। फ्यूरर के अनुसार श्रावस्ती नगर की विशालता एवं इसके सुनियोजित निर्माण के सम्बन्ध में महत्त्व - पूर्ण सूचनाएँ प्राप्त होती हैं ।
बुद्धकालीन भारतवर्ष में श्रावस्ती एवं वैशाली की गणना महानगरों में की जाती थी । प्रसिद्ध बौद्ध धर्मस्थली होने के कारण श्रावस्ती - वैशाली मार्ग प्रमुख मार्ग रहा है। इस मार्ग पर श्रावस्ती के पश्चात् शाक्यों की राजधानी कपिलवस्तु प्रमुख नगर था । श्रावस्ती से कपिलवस्तु का राजनैतिक, धार्मिक एवं व्यापारिक सम्बन्ध, इसी मार्ग से के घोड़े श्रावस्ती होकर कपिलवस्तु जाया करते थे । मार्ग पर चोरों का उपद्रव अधिक हुआ करता था । "४
था । “सिन्धु प्रदेश श्रावस्ती - कपिलवस्तु
कनिंघम" के अनुसार पाँचवीं शताब्दी में फाह्यान श्रावस्ती से पहले भगवान् क्रकुच्छन्द ( महात्मा बुद्ध के चौथे पूर्व भव का नामकरण ) के
१. कनिंघम, आर्कियोलॉजिकल सर्वे आव इण्डिया रिपोर्ट, १८६२ - ३, वाल्यूम ए०, I एवं वाo XI |
आर्कियोलाजिकल सर्वे आव इण्डिया रिपोर्ट, १९०७-८, १९०८- ९, १९०९१०, १९१०-११, १९११-१४ ।
३. फ्यूरर, ए० मानुमेण्टल एण्टीक्विटीज़ एण्ड इंस्क्रिप्शन्स इन नार्थ वेस्टनं प्राविन्सेज एण्ड अवध, पृ० ३०६, ३१३, इण्डोलाजिकल बुक हाउस, वाराणसी, १९६९ पृ० ७७ ।
४. जातक भिक्षु धर्मंरक्षित, पृ० ७७, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९५१ । ५. कनिंघम, ए० एंश्येण्ट ज्याग्रफी आव इण्डिया, पृ० ३४९ ।
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