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पावा- पड़रौना अनुशीलन : १३१ तथा इसके निकट से प्राप्त की गयी पुरातात्विक सामग्रियाँ, कलाकृतियाँ एवं मूर्तियाँ अपनी कथा स्वयं कहती हैं तथा प्रमाणित करती हैं कि उनका निर्माण काल ईसा पूर्व, दूसरी शताब्दी से लेकर ११वीं शताब्दी तक का है । पड़रौना का पुरातात्विक साक्ष्य ही यहाँ के इतिहास की पुष्टि करता है ।
पावा पड़रौना शंका समाधान
निघम' ने अपने सर्वेक्षण एवं उत्खनन के आधार पर १८६१ में प्रमाणित किया था कि पड़रौना ही पावा है, किन्तु कार्लाईल ने १८७६७७ एवं १८७७-७८ में इस सम्पूर्ण क्षेत्र का निरीक्षण एवं सर्वेक्षण कर सठियांव - फाजिलनगर को निश्चित रूप से पावा घोषित किया था । सर्वप्रथम पड़रौना आकर कनिंघम जी की दृष्टि पावा पर थी। इस क्षेत्र का सूक्ष्मता से अध्ययन कर उन्होंने विचार व्यक्त किया कि पड़रौना की 'भौगोलिक स्थिति सामान्य यात्रा मार्ग से उत्तर दिशा में अधिक दूरी पर है, अतः पड़रौना को पावा की मान्यता प्रदान करना सम्भव नहीं हैं ।
परन्तु जैसा पूर्व में भी कहा जा चुका है कि सिंहली बौद्ध साहित्य के अनुसार पावा कुशीनगर से १२ मील गण्डक की ओर स्थित था, इससे यह स्पष्ट है कि यह स्थान कुशीनगर से पूर्व में, वैशाली - कुशीनगर मार्ग पर स्थित था । सिंहली एवं बर्मी बौद्ध साहित्य से ज्ञात होता है कि पावा और कुशीनगर के बीच ककुत्था नामक पतली धारा ( छोटी नदी ) बहा करती थी, जहाँ महात्मा बुद्ध विश्राम कर स्नान और जलपान ग्रहण किये थे, परन्तु बर्मी बौद्ध साहित्य में इसका कुकुखा के रूप में उल्लेख है । सम्भवतः यही कसया से पूर्व-दक्षिण-पूर्व की दिशा में लगभग ६ मील की दूरी पर बहने वाली वर्तमान घाघी नदी है ।
कार्लाइल का तर्क है कि पड़रौना कसया से १२ मील उत्तर, उत्तर-पूर्व, अर्द्ध उत्तर दिशा में स्थित है । कुशीनगर के वास्तविक खण्डहरों से इसकी दूरी १३ मील है लेकिन यह दूरी मानचित्र पर नितान्त सीधी दूरी है ।
१. कनिंघम, ए० - आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इण्डिया रिपोर्ट, खण्ड १, पृ० ७४-७५ ।
२. ( ब ) आ० स० इ०रि० टू गो० सा० गा०, वाल्यूम ११, पृ० ३० एव पृ० १० ।
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