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पावा की अवस्थिति सम्बन्धी विभिन्न मत : ८३ जीर्णोद्धार एवं संगमरमर लगवाने का कार्य सम्भवतः १९१२ ई० में सम्पन्न हुआ था। प्राचीन पुल का जीर्णोद्धार एवं उसे चौड़ा करवाने, उस पर लाल पत्थरों की रेलिंग लगवाने तथा सुदढ़ प्रवेश द्वार के 'निर्माण का कार्य सम्भवतः १९३८ में आरम्भ हुआ। इसके निर्माण में कई वर्ष लगे। प्रवेश द्वार अनुपम है, पुल की लम्बाई ६०० फीट है। इसके निर्माण में कलकत्ता के जौहरियों का विशेष योगदान रहा है। चारों ओर परकोटा के निर्माण की योजना थी, किन्तु वह पूरी नहीं हो सकी।
__ ऐतिहासिक उल्लेखों और परम्पराओं में विरोध होने पर किसी स्थान के सम्बन्ध में वस्तुस्थिति स्पष्ट करने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। यही बात महावीर की निर्वाण-स्थली पावा के सम्बन्ध में भी है। जैनधर्मावलम्बी परम्परागत रूप से नालन्दा जनपद में स्थित पावापुरी को निर्वाण-स्थली मानते चले आ रहे हैं किन्तु ऐतिहासिक साक्ष्य इसको निर्वाण-स्थली मानने के विपरीत हैं। परम्परा एवं इतिहास के इस अन्तर्विरोध से अवगत श्री भंवरलाल नाहटा' का मत उल्लेखनीय है-बहत से स्थानों का सही निर्णय केवल इतिहास के आधार से नहीं किया जा सकता है। परम्परा का भी अपना महत्त्व है। हजारों वर्षों से लोकश्रद्धा बिहार-प्रान्त स्थित मध्यमा पावा को ही प्रभु का प्रयाण-स्थल समझकर अपनी भक्ति प्रकट करती आ रही है, इसलिए राजनैतिक या निहित स्वार्थ में लिप्त कुछेक वर्ग या सम्प्रदाय की तात्विक व्याख्या सामयिक लाभ के लिए ही है। विदेशी विद्वानों ने प्रायः बौद्ध त्रिपिटकों को ही अपने इतिहास लेखन में सहायक माना है । जैन सिद्धान्त एवं जैनागमों में व्यक्त विचार उन्हें एकांगी नजर आये हैं । फलतः उनका निर्णय स्पष्ट नहीं हो सकता क्योंकि सम्प्रदायगत विद्वेष से एक दूसरे को हेय समझने को बाध्य है। मेरा अपना विचार है कि लोक परम्परा लोकाचार के द्वारा बिहार स्थित मध्यमा पावा या युगपुरुष की निर्वाण भमि को अपने विश्वास का केन्द्र मानती आयी है इसलिए हम उस लोकमंगलमयी लोकभावना के समक्ष नतमस्तक होने को बाध्य हैं। हमारा इतिहास इसके विरुद्ध नहीं है । बौद्धों द्वारा मान्य पावा वस्तुतः बौद्धों की पावा है और वह जैनों को पावा नहीं है।
१. नाहटा, भँवरलाल, विश्वमित्र दैनिक, पृ० ४, १२ अप्रैल १९८४ कलकत्ता
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