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________________ ७० यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन __रविषेरणाचार्य ( ६७६ ई० ) ने पूर्वोक्त अनुश्रुति तो सुरक्षित रखी, किन्तु उसके साथ वर्णों का सम्बन्ध जोड़ दिया। उन्होंने लिखा है कि-ऋषभदेव ने जिन व्यक्तियों को रक्षा के कार्य में नियुक्त किया वे लोक में क्षत्रिय कहलाए, जिन्हें वाणिज्य, कृषि, गोरक्षा आदि व्यापारों में नियुक्त किया, वे वैश्य तथा जो शास्त्रों से दूर भागे और हीन काम करने लगे वे शूद्र कहलाए । ___ ब्राह्मण वरण के विषय में एक लम्बा प्रसङ्ग पाया है। जिसका तात्पर्य है कि ऋषभदेव ने यह वर्ण नहीं बनाया, किन्तु उनके पुत्र भरत ने व्रती श्रावकों का जो एक अलग वर्ग बनाया वही बाद में ब्राह्मण कहलाने लगा।९ __ हरिवंशपुराण में जिनसेन सूरि (७८३ ई० ) ने रविषेणाचार्य के कथन को ही दूसरे शब्दों में दोहराया है।१०।। इस प्रकार कर्मणा वर्ण-व्यवस्था का प्रतिपादन करते रहने के बाद भी उसके साथ चतुर्वर्ण का सम्बन्ध जुड़ गया और उसके प्रतिफल सामाजिक जीवन और श्रौत-स्मार्त मान्यताएँ जैन समाज और जैन चिन्तकों को प्रभावित करती गयों। एक शताब्दी बीतते-बीतते यह प्रभाव जैन जन-मानस में इस तरह बैठ गया कि नवमों शती में जिनसेन ने उन सब मन्तव्यों को स्वीकार कर लिया और उन पर जैनधर्म की छाप भी लगा दी। महापुराण में पूर्वोक्त अनुश्रति को सुरक्षित रखने के बाद भी स्मृति-ग्रन्थों की तरह चारों वर्गों के पृथक-पृथक कार्य, उनके सामाजिक और धार्मिक अधिकार, ५३ गन्विय, ४८ दीक्षान्वय और ८ कन्वय क्रियाओं एवं उपनयन आदि संस्कारों का विस्तार के साथ वर्णन किया गया है११ । जिनसेन पर श्रौत-स्मार्त प्रभाव की चरम सीमा वहाँ दिखाई देती है, जब वे इस कथन का जैनीकरण करने लगते हैं कि- "ब्रह्मा के मुँह से ब्राह्मण, बाहुओं से क्षत्रिय, ऊरु से वैश्य तथा पैरों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई।" वे लिखते हैं कि ऋषभदेव ने अपनी भुजाओं में शस्त्र-धारण करके क्षत्रिय बनाए, ऊरु द्वारा यात्रा का प्रदर्शन करके वैश्यों की रचना की तथा हीन काम करने वाले शूद्रों को ८. पद्मपुराण, पर्व ३, श्लोक २५५-१८ है. वही, पर्व ४, श्लोक ११-१२२ १०. हरिवंशपुराण, सर्ग , श्लोक ३३-४० ; सर्ग ११, श्लोक १०३-१०७ ११. महापुराण, पर्व १६, श्लोक १७६-१६, २४३.२५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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