________________
यशस्तिलककालीन सामाजिक जीवन
शक्ति की अपेक्षा किये गये हैं। ये वर्ण, जाति और गोत्र धर्म धारण करने में किसी भी प्रकार की रुकावट पैदा नहीं करते। प्रत्येक पर्याप्तक भव्य जीव चौदहवें गुणस्थान तक पहुँच सकता है।५ पाँचवें गुणस्थान से आगे के गुणस्थान मुनि के ही हो सकते हैं। इसका स्पष्ट अर्थ है कि कोई भी मनुष्य चाहे वह लोक में शूद्र कहलाता हो या ब्राह्मण, स्वेच्छा से धर्म धारण कर सकता है।
सैद्धान्तिक ग्रन्थों में सामाजिक व्यवस्था सम्बन्धी मन्तव्यों का वर्णन नहीं है । पौराणिक अनुश्रुति भी चतुर्वर्ण को सामाजिक व्यवस्था का आधार नहीं मानती।
__ अनुश्रुति के अनुसार सभ्यता के आदि युग में, जिसे शास्त्रीय भाषा में कर्मभूमि का प्रारम्भ कहा जाता है, ऋषभदेव ने असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिज्य का उपदेश दिया। उसी आधार पर सामाजिक व्यवस्था बनी।६ लोगों ने स्वेच्छा से कृषि आदि कार्य स्वीकृत कर लिये। कोई कार्य छोटा-बड़ा नहीं समझा गया। इसी तरह कोई भी कार्य धर्म धारण करने में रुकावट नहीं माना गया। ____बाद के साहित्य में यह अनुश्रुति तो सुरक्षित रही, किन्तु उसके साथ में वर्ण-व्यवस्था का सम्बन्ध जोड़ा जाने लगा। नवमी शती में आकर जिनसेन ने अनेक वैदिक मन्तव्यों पर भी जैन छाप लगा दी। __ जटासिंहनन्दि (७वीं शती, अनुमानित ) ने चतुर्वर्ण की लौकिक और श्रौत-स्मार्त मान्यताओं का विस्तारपूर्वक खण्डन करके लिखा है कि-कृतयुग में तो वर्ण भेद था नहीं, त्रेतायुग में स्वामी-सेवक भाव आ चला था। इन दोनों युगों की अपेक्षा द्वापर युग में निकृष्ट भाव होने लगे और मानव समूह नाना वर्गों में विभक्त हो गया। कलियुग में तो स्थिति और भी बदतर हो गयी। शिष्ट लोगों ने क्रिया-विशेष का ध्यान रखकर व्यवहार चलाने के लिए दया, अभिरक्षा, कृषि और शिल्प के आधार पर चार वर्ण कहे हैं, अन्यथा वर्णचतुष्टय बनता ही नहीं ।
४, कषायप्राभृत, अध्याय १, सूत्र ८ ५. वही, अध्याय १, सूत्र ८ ६. स्वयंभूस्तोत्र, आदिनाथ स्तुति, श्लोक २ ७. वरांगचरित २१18-19
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org