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यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन
किया गया वर्ण-व्यवस्था सम्बन्धी वर्णन स्मृति प्रतिपादित तत्-तत् विषयों का सूत्रीकरण मात्र है। ब्राह्मण आदि चार वर्ण, उनके अलग-अलग कार्य, सामाजिक और धार्मिक अधिकार आदि का वर्णन विस्तार के साथ किया गया है।'
जैन सिद्धान्तों के साथ वरण-व्यवस्था तथा उसके आधार पर सामाजिक व्यवस्था का प्रतिपादन करने वाले मन्तव्यों का किसी भी तरह सामंजस्य नहीं बैठता । सोमदेव स्वयं जैन सिद्धान्तों के मर्मज्ञ विद्वान थे। ऐसी स्थिति में उनके द्वारा किया गया यह वर्णन सिद्धान्तों में अन्तर्विरोध उपस्थित करता हुआ प्रतीत होता है।
सोमदेव के पूर्वकालीन साहित्य को देखने से पता चलता है कि जैन चिन्तक बहुत पहले से ही सामाजिक वातावरण और वैदिक साहित्य से प्रभावित हो चले थे, उसी प्रभाव में आकर उन्होंने अनेक वैदिक मन्तव्यों को जैन साँचे में ढालने का प्रयत्न किया। यहाँ तक कि बाद के अनेक सैद्धान्तिक ग्रन्थों पर यह प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है ।
मूल में जैनधर्म वर्ण-व्यवस्था तथा उसके आधार पर सामाजिक व्यवस्था को स्वीकार नहीं करता। सिद्धान्त ग्रन्यों में वर्ण और जाति शब्द नामकर्म के प्रभेदों में आये हैं। वहाँ वर्ण शब्द का अर्थ रंग है, जिसके कृष्ण, नील आदि पांच भेद हैं। प्रत्येक जीव के शरीर का वर्ण (रंग) उसके वर्णनामकर्म के अनुसार बनता है। इसी तरह जाति नामकर्म के भी पाँच भेद हैं-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। संसार के सभी जीव इन पाँच जातियों में विभक्त हैं। जिसके केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय है उसकी एकेन्द्रिय जाति होगी । मनुष्य के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्रये पाँचों इन्द्रियाँ होती हैं, इसलिए उसकी जाति पंचेन्द्रिय है। पशु के भी पाँचों इन्द्रियाँ हैं, इसलिए उसकी भी पंचेन्द्रिय जाति है। इस तरह जब जाति की दृष्टि से मनुष्य और पशु में भी भेद नहीं तब वह मनुष्य-मनुष्य का भेदक तत्त्व कैसे माना जा सकता है ? वर्ण (रंग) की अपेक्षा अन्तर हो सकता है, किन्तु वह ऊँच-नीच तथा स्पृश्य-अस्पृश्य की भावना पैदा नहीं करता।
गोत्रकर्म के उच्च गोत्र और नीच गोत्र दो भेद भी प्रात्मा की आभ्यन्तर
१. तुलना, नीतिवाक्यामृत त्रयी समुद्देश तथा मनुस्मृति, अध्याय १० २. कर्मविपाकनामक प्रथम कर्मग्रन्थ, गाथा ३१ ३. वही, गाथा ३२
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