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परिच्छेद दो
सोमदेव सूरि और जैनाभिमत वर्ण-व्यवस्था सोमदेव सूरि ने यशस्तिलक में जैन चिन्तकों के सामने सामाजिक व्यवस्था के सम्बन्ध में एक प्रश्न उपस्थित किया है
द्वौ हि धौं गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः । लोकाश्रयो भवेदाद्यः परः स्यादागमाश्रयः॥ जातयोऽनादयः सर्वास्तक्रियापि तथाविधाः। श्रुतिः शास्त्रान्तरं वास्तु प्रमाणं कात्र नः क्षतिः॥
(पृ० २७३ उत्त०) -गृहस्थों के दो धर्म हैं : एक लौकिक दूसरा पारलौकिक । लौकिक धर्म लोकाश्रित है और पारलौकिक आगमाश्रित । जातियाँ अनादि हैं तथा उनकी क्रियाएँ भी अनादि हैं, इसलिए इस विषय में श्रुति (वेद) और शास्त्रान्तर (स्मृति
आदि) को प्रमाण मान लेने में हमारी क्या हानि है।। ___इस प्रसङ्ग में आये श्रुति और शास्त्र शब्द को अन्यथा न समझा जाये, इसलिए स्वयं सोमदेव ने उक्त दोनों शब्दों को स्पष्ट कर दिया हैश्रुतिर्वेदमिह प्राहुर्धर्मशास्त्रं स्मृतिर्मता।
(पृ० २७८) —-वेद को श्रुति कहते हैं और धर्मशास्त्र को स्मृति ।
उपर्युक्त प्रश्न को प्रस्तुत करने के बाद सोमदेव ने अपना निर्णय निम्नलिखित शब्दों में दे दिया है
सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतदूषणम् ॥
(पृ० ३७३) ---जिस विधि से सम्यक्त्व की हानि न हो तथा व्रत में दूषण न लगे, ऐसी प्रत्येक लौकिक विधि जैनों के लिए प्रमाण है।
इस पृष्ठभूमि पर विकसित होने वाला सोमदेव का चिन्तन उनके दूसरे ग्रन्य नीतिवाक्यामृत में अधिक स्पष्ट रूप से सामने आया है। उसके त्रयी समुद्देश में
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