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________________ यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन का अर्थ नाई तथा चाण्डाल दोनों किये हैं । ३४ नाई के लिए नापित शब्द भी आता है (२४५ उत्त०)। १३. आस्तरक (४०३) : शय्यापालक । १४. संवाहक (४०३) : पैर दबानेवाला। दिवाकीर्ति, आस्तरक और संवाहक ये तीनों अलग-अलग राज परिचारक होते थे। सोमदेव ने तीनों का एक ही प्रसङ्ग में उल्लेख किया है। सम्भवतया दिवाकीर्ति का मुख्य कार्य बाल बनाना, आस्तरक का मुख्य कार्य बिस्तर, गद्दी आदि ठीक करना तथा संवाहक का मुख्य कार्य पैर दबाना, तैल मालिश करना आदि होता था। कौटिल्य ने आस्तरक तथा संवाहक दोनों का उल्लेख किया है। ३५ समृद्ध परिवारों में भी ये परिचारक रखे जाते थे। चारुदत्त के संवाहक ने अपने स्वामी के धनहीन हो जाने पर स्वयमेव काम छोड़ दिया था ।३६ १५. धीवर (२१६, ३३५ उत्त०) : मछली पकड़ने वाले । धीवर के लिए कैवर्त शब्द (२१६, उत्त०) भी पाया है। इनका मुख्य धन्धा मछली पकड़ना था । कैवर्तों के नव उपकरणों के नाम यशस्तिलक में आए हैं ।२७ १. लगुड-लाठी या डण्डा २. गल-मछली मारने का लोहे का काँटा ३. जाल-मछली पकड़ने का जाल ४. तरी--नाव ५. तर्प-घास का बना घोड़ा ६. तुवरतरंग-तूबी पर बनाया गया फलक या पटिया ७. तरण्ड--फलक या तैरने वाला पटिया ८. वेडिका-छोटी नाव या डोंगी ९. उडुप-परिहार नौका ३४. दिवाकीर्ते पितस्य । -१०४३सं. टो० । दिवाकीर्ति-चाण्डालस्य वा ।-४०३ ३५. अर्थशास्त्र भाग १, अध्याय १२ ३६. संवाहक :-चालित्तावशेशे अ तस्सि जूदोवजीवो म्हि शंवुत्ते। -मृच्छकटिक, अङ्क २ ३७. कैवर्ताः-लगुडगल जालव्यग्रपाणय तरोतर्पतुवरतरंगतरण्डवेडिकोडुपसम्पन्नपरि करा: ।-पृ० २१६ उत्त० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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